तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी ।
भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोद्दुश्चरं तप: ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
तुर्ये—चौथी बार; धर्म-कला—धर्मराज की पत्नी से; सर्गे—उत्पन्न; नर-नारायणौ—नर तथा नारायण; ऋषी—ऋषि; भूत्वा—होकर; आत्म-उपशम—इन्द्रिय निग्रह द्वारा; उपेतम्—प्राप्ति के लिए; अकरोत्—किया; दुश्चरम्—अत्यन्त कठिन; तप:—तपस्या ।.
अनुवाद
चौथे अवतार में भगवान् राजा धर्म की पत्नी के जुड़वाँ पुत्र नर तथा नारायण बने। फिर उन्होंने इन्द्रियों को वश में करने के लिए कठिन तथा अनुकरणीय तपस्या की।
तात्पर्य
राजा ऋषभ ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया था कि भगवान् का साक्षात्कार करने के लिए तपस्या ही मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य (धर्म) है, अतएव हमें शिक्षा देने के लिए ही भगवान् ने आदर्श प्रस्तुत करते हुए स्वयं ऐसा किया। भगवान् भुलक्कड़ जीवों पर अत्यन्त दयालु रहते हैं। अत: वे स्वयं आते हैं और अपने पीछे आवश्यक आदेश छोड़ जाते हैं। वे बद्धजीवों को भगवद्धाम वापस बुलाने के लिए अपने उत्तम पुत्रों को भी प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं। हाल ही में, अभी सबों की स्मृति में ही, भगवान् चैतन्य भी ऐसे ही कार्य के लिए, इस लौह उद्योग के युग में पतित आत्माओं पर विशेष कृपा करने के लिए प्रकट हुए थे। नारायण अवतार की पूजा आज भी हिमालय पर्वत स्थित बदरीनारायण में की जाती है।
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