व्यास उवाच
इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्ध: कुलपति: सूतं बह्वृच: शौनकोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
शब्दार्थ
व्यास: उवाच—व्यासदेव ने कहा; इति—इस प्रकार; ब्रुवाणम्—बोलते हुए; संस्तूय—बधाई देकर; मुनीनाम्—बड़े-बड़े साधुओं में; दीर्घ—दीर्घकालीन; सत्रिणाम्—यज्ञ सम्पन्न करने में लगे रहने वाले; वृद्ध:—वयोवृद्ध; कुल-पति:—सभा के अध्यक्ष; सूतम्—सूत गोस्वामी को; बहु-ऋच:—विद्वान; शौनक:—शौनक ने; अब्रवीत्—सम्बोधित किया ।.
अनुवाद
सूत गोस्वामी को इस प्रकार बोलते देखकर, दीर्घकालीन यज्ञोत्सव में लगे हुए समस्त ऋषियों में विद्वान तथा वयोवृद्ध अग्रणी शौनक मुनि ने सूत गोस्वामी को निम्न प्रकार सम्बोधित करते हुए बधाई दी।
तात्पर्य
विद्वानों की सभा में, जब भी वक्ता को बधाइयाँ दी जाती है या उनको सम्बोधित किया जाता है, तो बधाई देने वाले में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए। उसे सभा का अग्रणी (सभापति) तथा ज्येष्ठ व्यक्ति होना चाहिए। उसे विशद विद्वान भी होना चाहिए। श्री शौनक ऋषि में ये सारी योग्यताएँ थीं, अत: जब श्री सूत गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत को उसी रूप में सुनाने की इच्छा व्यक्त की, जिस रूप में उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से सुना था तथा स्वयं भी उसे आत्मसात् किया था, तो श्री शौनक जी उन्हें बधाई देने के लिए खड़े हुए। आत्म-अनुभूति का यह अर्थ नहीं होता है कि गर्व के कारण, पूर्ववर्ती आचार्य का उल्लघंन करके, कोई अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करे। उसे पूर्ववर्ती आचार्य पर पूरा विश्वास होना चाहिए और साथ ही साथ उसे विषय का ऐसा उत्तम ज्ञान होना चाहिए कि वह किसी विशिष्ट अवसर पर, उस विषय को उपयुक्त ढंग से प्रस्तुत कर सके। विषय के मूल उद्देश्य का पालन होना चाहिए। खींचतान कर उसका कोई दुर्बोध अर्थ नहीं निकालना चाहिए, अपितु श्रोताओं को समझाने के लिए उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए। इसे आत्मसात करना कहा जाता है। सभा के अगुआ शौनक ने वक्ता श्री सूत गोस्वामी के महत्त्व का यथाधीतम् तथा यथामति कहकर अनुमान लगा लिया था, अतएव परम प्रसन्न होकर वे उन्हें बधाई दे रहे थे। ऐसे व्यक्ति से कभी नहीं सुनना चाहिए जो मूल आचार्य का प्रतिनिधित्व न करता हो। अतएव इस सभा में वक्ता तथा श्रोता दोनों ही प्रामाणिक थे, जिसमें श्रीमद्भागवत को दूसरी बार सुनाया जा रहा था। भागवत के ऐसे मानक वाचन से वास्तविक उद्देश्य को बिना किसी कठिनाई के स्थिर रखा जा सकता है। ऐसी स्थिति उत्पन्न किये बिना, बाह्य प्रयोजनों के लिए, भागवत का वाचन वक्ता तथा श्रोता दोनों के लिए व्यर्थ का श्रम है।
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