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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  1.4.10 
स सम्राट् कस्य वा हेतो: पाण्डूनां मानवर्धन: ।
प्रायोपविष्टो गङ्गायामनाद‍ृत्याधिराट्‌श्रियम् ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
स:—वे; सम्राट्—महाराजा; कस्य—किस; वा—अथवा; हेतो:—कारण से; पाण्डूनाम्—पाण्डु के पुत्रों का; मान वर्धन:—कुल को सम्पन्न करने वाला; प्राय-उपविष्ट:—बैठे तथा उपवास करते; गङ्गायाम्—गंगा के तट पर; अनादृत्य— उपेक्षा करके; अधिराट्—प्राप्त किया राज्य; श्रियम्—ऐश्वर्य ।.
 
अनुवाद
 
 वे एक महान् सम्राट थे और उनके पास उपार्जित राज्य के सारे ऐश्वर्य थे। वे इतने वरेण्य थे कि उनसे पाण्डु वंश की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी। तो फिर वे सब कुछ त्याग कर गंगा नदी के तट पर बैठकर क्यों आमरण उपवास करने लगे?
 
तात्पर्य
 महाराज परीक्षित समस्त समुद्रों एवं महासागरों समेत पूरे संसार के चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हें इस राज्य को प्राप्त करने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ा था। उन्हें वह अपने पितामह महाराज युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों से उत्तराधिकार में मिला था। इसके साथ ही साथ, वे सुचारु रूप से शासन चला रहे थे, जो उनके पूर्वजों की प्रतिष्ठा के ही अनुरूप था। फलस्वरूप, उनके ऐश्वर्य तथा प्रशासन में कुछ भी अवाँछित नहीं था। तो फिर वे क्यों सारा राजपाट त्याग कर, गंगा के तट पर आमरण उपवास करने लगे? यह आश्चर्यजनक है, अतएव सभी इसका कारण जानने के लिए उत्सुक थे।
 
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