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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  1.4.11 
नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मन:
शिवायहानीय धनानि शत्रव: ।
कथं स वीर: श्रियमङ्ग दुस्त्यजां
युवैषतोत्स्रष्टुमहो सहासुभि: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
नमन्ति—झुकते हैं; यत्-पाद—जिनके पाँव के; निकेतम्—नीचे; आत्मन:—अपने; शिवाय—कल्याण के लिए; हानीय—लाकर; धनानि—सम्पत्ति; शत्रव:—शत्रुगण; कथम्—किस कारण से; स:—वह; वीर:—वीर; श्रियम्— ऐश्वर्य; अङ्ग—हे; दुस्त्यजाम्—जिसका छोड़ पाना दुष्कर है उसे; युवा—युवावस्था में; ऐषत—इच्छा की; उत्स्रष्टुम्— त्याग देने के लिए; अहो—अरे; सह—साथ; असुभि:—जीवन के ।.
 
अनुवाद
 
 वे इतने बड़े सम्राट थे कि उनके सारे शत्रु आकर अपनी भलाई के लिए उनके चरणों पर अपना शीश झुकाते थे और अपनी सारी सम्पत्ति अर्पित करते थे। वे तरुण और शक्तिशाली थे और उनके पास अलभ्य राजसी ऐश्वर्य था। तो फिर वे अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि अपना जीवन भी, क्यों त्यागना चाह रहे थे?
 
तात्पर्य
 उनके जीवन में कुछ भी अवांछनीय नहीं था। वे नवयुवक थे और शक्ति एवं ऐश्वर्य के साथ जीवन का भोग कर सकते थे, अतएव सक्रिय जीवन से विराम लेने का कोई प्रश्न नहीं उठता था। उन्हें राज्य-कर वसूलने में कोई कठिनाई नहीं थी, क्योंकि वे इतने शक्तिशाली एवं वीर थे कि उनके शत्रु भी उनके चरणों में शीश झुकाते थे और अपने ही हित के लिए अपनी सारी सम्पत्ति भेंट कर जाते थे। महाराज परीक्षित पवित्र राजा थे। उन्होंने शत्रुओं को जीत लिया था, अतएव उनका राज्य वैभव-सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न, दूध तथा धातुएँ थीं और सारे पर्वत तथा नदियाँ क्षमताओं से भरपूर थी। फलत: भौतिक दृष्टि से सब कुछ सन्तोषप्रद था। अतएव इस असमय में अपना साम्राज्य एवं जीवन त्याग करने का कोई प्रश्न नहीं उठना चाहिए था। मुनिगण इसके विषय में सुनने के लिए आतुर थे।
 
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