श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  1.4.12 
शिवाय लोकस्य भवाय भूतये
य उत्तमश्लोकपरायणा जना: ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयं
मुमोच निर्विद्य कुत: कलेवरम् ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
शिवाय—कल्याण हेतु; लोकस्य—समस्त जीवों के; भवाय—समुन्नति के लिए; भूतये—आर्थिक विकास के लिए; ये—जो है; उत्तम-श्लोक-परायणा:—भगवान् के कार्य के प्रति अनुरक्त; जना:—लोग; जीवन्ति—जीते हैं; न—लेकिन नहीं; आत्म-अर्थम्—स्वार्थ; असौ—वह; पर-आश्रयम्—अन्यों के लिए शरण; मुमोच—त्याग दिया; निर्विद्य—समस्त प्रकार की आसक्ति से मुक्त होकर; कुत:—किस लिए; कलेवरम्—मर्त्य शरीर को ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग भगवत्कार्य में अनुरक्त रहते हैं, वे दूसरों के कल्याण, उन्नति तथा सुख के लिए ही जीवित रहते हैं। वे किसी स्वार्थवश जीवित नहीं रहते। अतएव राजा (परीक्षित) ने समस्त सांसारिक वैभव की आसक्ति से मुक्त होते हुए भी, अपने उस मर्त्य शरीर को क्यों त्यागा जो दूसरों के लिए आश्रयतुल्य था?
 
तात्पर्य
 परीक्षित महाराज आदर्श राजा तथा गृहस्थ थे, क्योंकि वे भगवद्भक्त थे। भगवद्भक्त में स्वत: समस्त उत्तम गुण आ जाते हैं और महाराज इसके विशिष्ट उदाहरण थे। व्यक्तिगत रूप से, उन्हें अपने अधिकार में उपलब्ध सांसारिक ऐश्वर्य से कोई आसक्ति न थी। लेकिन, चूँकि वे जनता की चतुर्दिक् भलाई के लिए राजा बने थे, अतएव वे जनता के कल्याणकार्यों में न केवल इस जीवन में, अपितु अगले जीवन में भी सदैव व्यस्त रहना चाहते थे। वे कसाईघरों की या गोवध की अनुमति नहीं देते थे। वे ऐसे मूर्ख तथा पक्षपाती प्रशासक न थे, जो एक जीव को तो सुरक्षा प्रदान करते और दूसरे का वध होने देते। चूँकि वे भगवद्भक्त थे, अतएव वे यह अच्छी तरह जानते थे कि मनुष्यों, पशुओं, पौधों तथा समस्त जीवित प्राणियों के सुख के लिए किस प्रकार प्रशासन चलाना चाहिए। वे अपने स्वार्थ में रुचि रखने वाले पुरुष न थे। स्वार्थ या तो आत्मकेन्द्रित होता है या आत्म-विस्तारित होता है। वे इन दोनों में से एक भी न थे। उनका स्वार्थ तो परम सत्य, परमेश्वर को प्रसन्न करने में था। राजा परमेश्वर का प्रतिनिधि होता हैं, अतएव राजा और परमेश्वर का उद्देश्य एक जैसा होना चाहिए। परमेश्वर चाहते हैं कि सारे जीव उनके आज्ञाकारी बनें और इस तरह से सुखी हों। अत: राजा का स्वार्थ इसी में है कि वह अपनी प्रजा का भगवान् के धाम वापस जाने में उनका मार्गदर्शन करे। अतएव प्रजा के कार्यकलापों को इस प्रकार समन्वित किया जाना चाहिए कि सारे लोग अन्त में भगवद्धाम वापस जा सकें। प्रतिनिधि राजा के शासन में सारा साम्राज्य ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहता है। ऐसी दशा में मनुष्यों को पशुओं को खाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्न, दुग्ध, फल तथा तरकारियों की प्रचुरता रहती है जिससे मनुष्य तथा पशु जी भरकर खा-पी सकते हैं। यदि सारे जीव आहार तथा आश्रय पाकर सन्तुष्ट हों और नियत नियमों का पालन करें, तो जीव-जीव में परस्पर कोई उपद्रव न हो। महाराज परीक्षित योग्य राजा थे, अतएव उनके शासन में सभी लोग सुखी थे।
 
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