श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  1.4.13 
तत्सर्वं न: समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्‍नातमन्यत्र छान्दसात् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—वह; सर्वम्—सारा; न:—हमसे; समाचक्ष्व—स्पष्ट कहें; पृष्ट:—प्रश्न पूछा; यत् इह—यहाँ पर; किञ्चन—वह सब; मन्ये—हम सोचते हैं; त्वाम्—आपको; विषये—सारे विषयों में; वाचाम्—शब्दार्थ; स्नातम्—पूर्ण रूप से ज्ञात; अन्यत्र—छोडक़र; छान्दसात्—वेदों का अंश ।.
 
अनुवाद
 
 हम जानते हैं कि आप वेदों के कतिपय अंश को छोडक़र अन्य समस्त विषयों के अर्थ में पटु हैं, अतएव आप उन सारे प्रश्नों की स्पष्ट व्याख्या कर सकते हैं, जिन्हें हमने आपसे अभी पूछा है।
 
तात्पर्य
 वेदों तथा पुराणों में वही अन्तर है जो ब्राह्मणों एवं परिव्राजकों में होता है। ब्राह्मण वेदों में वर्णित कुछ सकाम यज्ञों को सम्पन्न करने के लिए होते हैं, लेकिन परिव्राजकाचार्यों या विद्वान उपदेशकों का कार्य दिव्य ज्ञान को सबों तक पहुँचाना होता है। अतएव परिव्राजकाचार्य सदा वेद मन्त्रों के उच्चारण में पटु नहीं होते जिनका अभ्यास ब्राह्मणों द्वारा लययुक्त उच्चारण में नियमित रूप से किया जाता हैं, क्योंकि ब्राह्मण वैदिक अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के लिए होते हैं। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि भ्रमणशील उपदेशकों (परिव्राजकों) की अपेक्षा ब्राह्मण अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। वे एकसाथ एक तथा भिन्न हैं, क्योंकि विभिन्न मार्गों के होते हुए भी उनका लक्ष्य एक है।

वैदिक मन्त्रों में एवं पुराणों तथा इतिहास में जो कुछ वर्णित है, उनमें भी कोई अन्तर नहीं है। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार माध्यन्दिन-श्रुति में उल्लेख हुआ है कि सारे वेद अर्थात् साम, अथर्व, ऋग्, यजुर्, पुराण, इतिहास, उपनिषद् आदि परम पुरुष के श्वास से उद्भूत हैं। अन्तर इतना ही है कि सारे वैदिक मन्त्र प्रणव ॐकार से प्रारम्भ होते हैं और इन मन्त्रों का सस्वर पाठ करने के लिए कुछ अभ्यास करना पड़ता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि श्रीमद्भागवत वैदिक मन्त्रों की अपेक्षा कम महत्त्व का है। इसके विपरीत, यह समस्त वेदों का पक्व फल है, जैसाकि पहले कहा जा चुका है। इसके अतिरिक्त, परम मुक्त पुरुष श्रील शुकदेव गोस्वामी स्वरूपसिद्ध होते हुए भी, भागवत के अध्ययन में लीन रहते हैं। श्रील सूत गोस्वामी उन्हीं के चरण-चिह्नों का अनुगमन कर रहे हैं, अतएव उनका स्थान रंचमात्र भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, भले ही वे वैदिक मन्त्रों के सस्वर पाठ में उतने पटु न हों, जो वास्तविक अनुभूति की अपेक्षा अभ्यास पर अधिक निर्भर करता है। तोता-रटन्त की अपेक्षा अनुभूति अधिक महत्त्वपूर्ण है।

 
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