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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  1.4.15 
स कदाचित्सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचि: ।
विविक्त एक आसीन उदिते रविमण्डले ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वे; कदाचित्—एक बार; सरस्वत्या:—सरस्वती नदी के तट पर; उपस्पृश्य—प्रात:कालीन आचमन से निवृत्त होकर; जलम्—जल से; शुचि:—पवित्र होकर; विविक्ते—एकाग्रता; एक:—अकेले; आसीन:—इस प्रकार बैठे हुए; उदिते—उदय होने वाले; रवि-मण्डले—सूर्य के गोले का ।.
 
अनुवाद
 
 एक बार सूर्योदय होते ही उन्होंने (व्यासदेव ने) सरस्वती के जल से प्रात:कालीन आचमन किया और मन एकाग्र करने के लिए वे एकान्त में बैठ गये।
 
तात्पर्य
 सरस्वती नदी हिमालय पर्वत के बदरिकाश्रम क्षेत्र में बहती है। अतएव यहाँ पर जिस स्थान को इंगित किया गया है, वह बदरिकाश्रम में ‘शम्याप्रास’ है, जहाँ श्री व्यासदेव रह रहे हैं।
 
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