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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 17-18
 
 
श्लोक  1.4.17-18 
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान्नि:सत्त्वान्दुर्मेधान् ह्रसितायुष: ॥ १७ ॥
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद्दध्यौ हितममोघद‍ृक् ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
भौतिकानाम् च—पदार्थ से निर्मित प्रत्येक वस्तु का भी; भावानाम्—कर्म; शक्ति-ह्रासम् च—तथा प्राकृतिक शक्ति का क्षय; तत्-कृतम्—उसके द्वारा किया गया; अश्रद्दधानान्—श्रद्धाविहीन का; नि:सत्त्वान्—सतोगुण के अभाव के कारण अधीर; दुर्मेधान्—दुर्बुद्धि वाला; ह्रसित—घटा हुआ; आयुष:—जीवन अवधि का; दुर्भगान् च—तथा अभागे; जनान्— जन सामान्य को; वीक्ष्य—देखकर; मुनि:—मुनि; दिव्येन—दिव्य; चक्षुषा—दृष्टि से; सर्व—समस्त; वर्ण-आश्रमाणाम्—जीवन के समस्त स्तरों तथा आश्रमों का; यत्—जो; दध्यौ—विचार किया; हितम्—कल्याण; अमोघ- दृक्—पूर्ण ज्ञान से युक्त ।.
 
अनुवाद
 
 परम ज्ञानी ऋषि, अपनी दिव्य दृष्टि से, युग के प्रभाव से प्रत्येक भौतिक वस्तु की अवनति को देख सकते थे। वे यह भी देख सकते थे कि श्रद्धाविहीन व्यक्तियों की आयु क्षीण होगी और वे सच्चगुण के अभाव के कारण अधीर रहेंगे। इस प्रकार उन्होंने समस्त वर्णों तथा आश्रमों के लोगों के कल्याण पर विचार किया।
 
तात्पर्य
 काल की अप्रकट शक्तियाँ इतनी प्रबल होती हैं कि वे सारे पदार्थ को समय आने पर विस्मृति के गर्भ में डाल देती हैं। चतुर्युग चक्र के अन्तिम युग कलियुग में समय के प्रभाव से सारी भौतिक वस्तुओं की शक्ति का क्षय हो जाता है। इस युग में जनसामान्य की आयु काफी घट जाती है और उसी प्रकार से स्मरण शक्ति भी। पदार्थ की क्रिया की भी उतनी प्रेरणा नहीं रह पाती। धरती भी बीते युगों की भाँति उसी परिमाण में अन्न उत्पन्न नहीं कर पाती। गाएँ भी पूर्व युगों की भाँति दूध नहीं देतीं। शाकों तथा फलों का भी उत्पादन पहले से कम हो जाता है। इस प्रकार सारे जीव, चाहे मनुष्य हों या पशु, प्रचुर मात्रा में पौष्टिक भोजन नहीं पाते। जीवन की अनेकानेक आवश्यकताओं की चाहत के कारण स्वाभाविक रूप से आयु घट जाती है, स्मरण शक्ति कम हो जाती है, बुद्धि अल्प हो जाती है और पारस्परिक व्यवहार में दिखावा आ जाता है।

महर्षि व्यासदेव अपनी दिव्य दृष्टि से इसे देख सके। जिस प्रकार कोई ज्योतिषी मनुष्य के भाग्य को देख सकता है या ज्योतिर्विद चन्द्र तथा सूर्य ग्रहणों की भविष्यवाणी कर सकता है, उसी प्रकार शास्त्रों के भीतर झाँक सकने वाले मुक्तात्मा सारी मानवता का भविष्य पहले से बता सकते हैं। वे अपनी आध्यात्मिक पैनी दृष्टि से यह सब देख सकते हैं।

इस प्रकार से ऐसे सारे अध्यात्मवादी, जो स्वभाविक रूप से भगवद्भक्त होते हैं, जनसामान्य का कल्याण करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। जनता के वास्तविक मित्र वे हैं, तथाकथित जन-नेता नहीं, जो यह भी नहीं जानते कि अगले पाँच मिनटों में क्या होने वाला है। इस युग में जनता तथा उनके तथाकथित नेता सभी अभागे व्यक्ति हैं, जिनकी अध्यात्म ज्ञान में कोई श्रद्धा नहीं होती और वे कलियुग द्वारा प्रभावित रहते हैं। वे नाना रोगों से व्याकुल होते रहते हैं। उदाहरणार्थ, आधुनिक युग में क्षय के रोगी हैं और क्षय रोग के अस्पताल भी अनेक हैं, लेकिन पूर्व काल में ऐसा नहीं था, क्योंकि समय इतना प्रतिकूल नहीं था। इस युग के अभागे लोग उन योगियों का स्वागत करते हुए कतराते हैं, जो श्रील व्यासदेव के प्रतिनिधि तथा नि:स्वार्थ कार्यकर्ता हैं, जो कुछ न कुछ योजना बनाने में लगे रहते हैं जिससे सभी वर्णों तथा आश्रमों के लोगों का लाभ हो सके। सबसे बड़े मानवतावादी तो वे योगी हैं जो व्यास, नारद, मध्व, चैतन्य, रूप, सरस्वती आदि के संदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे सब एक ही हैं। भले ही व्यक्ति भिन्न-भिन्न हों, लेकिन उनका उद्देश्य एक ही है कि पतितात्माओं को भगवद्धाम वापस भेज कर उनका उद्धार करना।

 
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