चातु:—चार; होत्रम्—यज्ञ की अग्नियाँ; कर्म शुद्धम्—कर्म की शुद्धि; प्रजानाम्—प्रजा का; वीक्ष्य—देखकर; वैदिकम्—वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार; व्यदधात्—बनाया; यज्ञ—यज्ञ; सन्तत्यै—विस्तार के लिए; वेदम् एकम्— केवल एक वेद को; चतु:-विधम्—चार विभागों में ।.
अनुवाद
उन्होंने देखा कि वेदों में वर्णित यज्ञ वे साधन हैं, जिनसे लोगों की वृत्तियों को शुद्ध बनाया जा सकता है। अत: इस विधि को सरल बनाने के लिए ही उन्होंने एक ही वेद के चार भाग कर दिये, जिससे वे लोगों के बीच फैल सकें।
तात्पर्य
पहले यजुर्वेद नामक एक ही वेद था और उसी में यज्ञ के चार विभागों का विशेष उल्लेख था। लेकिन उन्हें अधिक सरल बनाने के उद्देश्य से वेद को यज्ञ के चार विभागों में बाँट दिया गया, जिससे चारों आश्रमों का वृत्तिपरक धर्म शुद्ध हो सके। ऋग्, यजुर्, साम तथा अथर्व, इन चार वेदों के अलावा पुराण, महाभारत, संहिताएँ आदि पाँचवा वेद कहलाती हैं। श्री वेदव्यास तथा उनके अनेक शिष्य इतिहास प्रवृत्त व्यक्ति थे और वे सब इस कलि की पतितात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु थे। फलस्वरूप, सम्बद्ध ऐतिहासिक तथ्यों से पुराण तथा महाभारत तैयार किये गये, जिनमें चारों वेदों की शिक्षा दी गई है। पुराणों तथा महाभारत को वेदों का अभिन्न अंग मानने में कोई शंका नहीं होनी चाहिए। छान्दोग्य उपनिषद् (७.१.४)में पुराणों तथा महाभारत को, जिन्हें सामान्य रूप से इतिहास माना जाता है, पंचम वेद कहा गया है। श्रील जीव गोस्वामी के मतानुसार शास्त्रों की अपनी-अपनी महत्ता आँकने की यही विधि है।
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