श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  1.4.2 
शौनक उवाच
सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवाञ्छुक: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
शौनक: उवाच—शौनक ने कहा; सूत सूत—हे सूत गोस्वामी; महा-भाग—परम भाग्यशाली; वद—कृपया कहें; न:— हमसे; वदताम्—बोलने वालों में से; वर—आदरणीय; कथाम्—कथा के सन्देश को; भागवतीम्—भागवत की; पुण्याम्—पवित्र; यत्—जो; आह—कहा; भगवान्—परम शक्तिमान; शुक:—श्री शुकदेव गोस्वामी ने ।.
 
अनुवाद
 
 शौनक ने कहा : हे सूत गोस्वामी, जो बोल सकते हैं तथा सुना सकते हैं, उन सबों में आप सर्वाधिक भाग्यशाली तथा सम्माननीय हैं। कृपा करके श्रीमद्भागवत की पुण्य कथा कहें, जिसे महान् तथा शक्तिसम्पन्न ऋषि शुकदेव गोस्वामी ने सुनाइ थी।
 
तात्पर्य
 शौनक गोस्वामी प्रसन्नता के कारण सूत गोस्वामी को दो बार ‘सूत सूत’ कह कर सम्बोधित करते हैं, क्योंकि वे स्वयं तथा सभा के सारे लोग शुकदेव गोस्वामी द्वारा कहे गये श्रीमद्भागवत के पाठ को सुनने के लिए उत्सुक थे। वे किसी ऐसे नकली व्यक्ति से नहीं सुनना चाहते थे, जो निजी स्वार्थ के लिए अपने ही ढंग से व्याख्या करे। सामान्य रूप से भागवत के तथाकथित कथावाचक या तो पेशेवर वाचक होते हैं या तथाकथित विद्वान निर्विशेषवादी होते हैं, जो परम पुरुष की सविशेष दिव्य लीलाओं में प्रवेश नहीं पा सकते। ऐसे निर्विशेषवादी, अपनी- अपनी रुचि के अनुसार, निर्विशेषवादी मत का समर्थन करने वाला कोई न कोई अर्थ निकालते हैं एवं पेशेवर वाचक तो सीधे दशम स्कंध में पहुँच कर भगवान् की लीलाओं के गुह्यतम अंश की गलत व्याख्या करने लगते हैं। इन दोनों में से कोई भी वाचक भागवत सुनाने का अधिकारी नहीं होता। केवल ऐसा व्यक्ति जो शुकदेव गोस्वामी की तरह भागवत प्रस्तुत करने को तैयार हो तथा केवल वे लोग जो शुकदेव गोस्वामी तथा उनके प्रतिनिधि से सुनने को तैयार हों, श्रीमद्भागवत की दिव्य चर्चा के प्रामाणिक भागीदार हैं।
 
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