स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
स्त्री—स्त्री वर्ग; शूद्र—श्रमिक वर्ग; द्विज-बन्धूनाम्—द्विजों के मित्रों का; त्रयी—तीन; न—नहीं; श्रुति-गोचरा—समझने के लिए; कर्म—कर्म में; श्रेयसि—कल्याण में; मूढानाम्—मूर्खों का; श्रेय:—परम लाभ; एवम्—इस प्रकार; भवेत्— प्राप्त किया; इह—इससे; इति—इस प्रकार सोचकर; भारतम्—महाभारत; आख्यानम्—ऐतिहासिक तथ्य; कृपया— महत अनुकम्पावश; मुनिना—मुनि द्वारा; कृतम्—पूरा हुआ है ।.
अनुवाद
महर्षि ने अनुकम्पावश हितकर समझा कि यह मनुष्यों को जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने में यह सहायक होगा। इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों, शूद्रों तथा द्विज-बन्धुओं के लिए महाभारत नामक महान ऐतिहासिक कथा का संकलन किया।
तात्पर्य
द्विज-बन्धु वे हैं जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्यों या आध्यात्मिक कुलों में जन्म तो लेते हैं, किन्तु अपने पूर्वजों के तुल्य नहीं होते। ऐसे वंशज संस्कारों के अभाव में मान्य नहीं बन पाते। ऐसे संस्कार बालक के जन्म लेने के पहले से ही प्रारम्भ हो जाते हैं और बीजारोपण पहला गर्भाधान-संस्कार कहलाता है। जो व्यक्ति गर्भाधान-संस्कार अर्थात् आध्यात्मिक परिवार नियोजन की इस प्रक्रिया से नहीं गुजरता, उसे द्विज कुल में जन्मा नहीं माना जाता है। गर्भाधान-संस्कार के बाद अन्य कई संस्कार होते हैं, जिनमें उपनयन संस्कार एक है। यह आध्यात्मिक दीक्षा के समय सम्पन्न होता है। इस विशेष संस्कार के बाद ही कोई द्विज कहलाता है। एक जन्म गर्भाधान संस्कार के समय गिना जाता है और दूसरा, आध्यात्मिक दीक्षा के समय। जो इन महत्त्वपूर्ण संस्कारों से गुजरता है, उसे प्रामाणिक द्विज कहा जा सकता है।
यदि माता तथा पिता आध्यात्मिक परिवार नियोजन अर्थात् गर्भाधान-संस्कार का पालन किये बिना केवल वासना-वश सन्तानें उत्पन्न करते हैं, तो ये सन्तानें द्विज-बन्धु कहलाती हैं। निश्चित रूप से, ये द्विज-बन्धु नियमित द्विजों के बालकों के समान बुद्धिमान नहीं होते। ऐसे द्विज बन्धुओं की गणना शूद्रों एवं स्त्रियों के साथ की जाती है, जो स्वभाव से अल्पज्ञ होते हैं। शूद्रों तथा स्त्रियों को विवाह संस्कार के अतिरिक्त कोई अन्य संस्कार नहीं करना होता।
अल्पज्ञ श्रेणी के व्यक्ति, यथा स्त्रियाँ, शूद्र तथा उच्च वर्णों के अयोग्य पुत्र, आवश्यक योग्यताओं से विहीन होते हैं जिससे वे दिव्य वेदों के उद्देश्य को नहीं समझ पाते। ऐसे लोगों के लिए महाभारत लिखा गया है। महाभारत का उद्देश्य वेदों के उद्देश्य की पूर्ति है, अत: इस महाभारत में वेद का सार भगवद्गीता सन्निविष्ट है। अल्पज्ञ लोग दर्शन की अपेक्षा कथाओं में अधिक रुचि दिखाते हैं, अतएव वेदों के दर्शन का प्रवचन, भगवान् कृष्ण द्वारा भगवद्गीता के रूप में किया गया। व्यासदेव तथा भगवान् कृष्ण दोनों ही दिव्य पद पर हैं, अतएव उन्होंने इस युग के पतितात्माओं के कल्याण के लिए सहयोग किया। भगवद्गीता समस्त वैदिक ज्ञान का सार है। यह आध्यात्मिक मूल्यों का वैसा ही प्रथम ग्रंथ है, जिस प्रकार उपनिषदे हैं। वेदान्त दर्शन तो अध्यात्म के स्नातकों के अध्ययन करने का विषय है। केवल स्नाकोत्तर छात्र ही आध्यात्मिक या भगवद्भक्ति में प्रवेश पा सकते हैं। यह एक महान विज्ञान है और इसके परमाचार्य श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में स्वयं भगवान् हैं। जो लोग उनके द्वारा शक्ति-प्रदत्त हैं, वे ही दिव्य भगवद्भक्ति में अन्यों को दीक्षित कर सकते हैं।
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