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श्लोक 1.4.27  |
नातिप्रसीदद्धृदय: सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं चोवाच धर्मवित् ॥ २७ ॥ |
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शब्दार्थ |
न—नहीं; अतिप्रसीदत्—अत्यधिक तुष्ट; हृदय:—हृदय में; सरस्वत्या:—सरस्वती नदी के; तटे—किनारे; शुचौ—पवित्र; वितर्कयन्—विचार करके; विविक्त-स्थ:—एकान्त में स्थित; इदम् च—यह भी; उवाच—कहा; धर्म-वित्—धर्म का ज्ञाता ।. |
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अनुवाद |
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इस प्रकार मन में असंतुष्ट रहते हुए ऋषि ने तुरन्त विचार करना प्रारम्भ कर दिया, क्योंकि वे धर्म के सार के ज्ञाता और मन ही मन कहा : |
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तात्पर्य |
ऋषि अपने मन के असन्तोष का कारण ढूँढने लगे। सिद्धि तब तक नहीं मिल पाती, जब तक कोई हृदय से संतुष्ट न हो। हृदय की तुष्टि को पदार्थ से परे ढूँढना होता है। |
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