श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  1.4.27 
नातिप्रसीदद्‍धृदय: सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं चोवाच धर्मवित् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; अतिप्रसीदत्—अत्यधिक तुष्ट; हृदय:—हृदय में; सरस्वत्या:—सरस्वती नदी के; तटे—किनारे; शुचौ—पवित्र; वितर्कयन्—विचार करके; विविक्त-स्थ:—एकान्त में स्थित; इदम् च—यह भी; उवाच—कहा; धर्म-वित्—धर्म का ज्ञाता ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार मन में असंतुष्ट रहते हुए ऋषि ने तुरन्त विचार करना प्रारम्भ कर दिया, क्योंकि वे धर्म के सार के ज्ञाता और मन ही मन कहा :
 
तात्पर्य
 ऋषि अपने मन के असन्तोष का कारण ढूँढने लगे। सिद्धि तब तक नहीं मिल पाती, जब तक कोई हृदय से संतुष्ट न हो। हृदय की तुष्टि को पदार्थ से परे ढूँढना होता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥