हो सकता है कि मैंने भगवान् की भक्ति का विशेष रूप से कोई संकेत न किया हो, जो सिद्ध जीवों तथा अच्युत भगवान् दोनों को प्रिय है।
तात्पर्य
श्रील व्यासदेव जिस असंतोष का अनुभव कर रहे थे, वह यहाँ पर उन्हीं के शब्दों में व्यक्त हुआ है। यह असन्तोष भगवान् की भक्ति में जीव की सामान्य दशा में अनुभव किया गया था। जब तक कोई सेवा की सामान्य दशा में स्थित नहीं होता, तब तक न तो भगवान् और न ही जीव पूरी तरह संतुष्ट हो सकते हैं। उन्हें इस दोष का अनुभव तब हुआ, जब उनके गुरु नारद मुनि उनके पास आये। इसका वर्णन इस प्रकार हुआ है।
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