श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 4: श्री नारद का प्राकट्य  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  1.4.8 
स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागस्तीर्थीकुर्वंस्तदाश्रमम् ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वे (शुकदेव गोस्वामी) ; गो-दोहन-मात्रम्—केवल गाय दुहते समय तक; हि—निश्चय ही; गृहेषु—घर में; गृह- मेधिनाम्—गृहस्थों के; अवेक्षते—प्रतीक्षा करते हैं; महा-भाग:—परम भाग्यशाली; तीर्थी—तीर्थ यात्रा; कुर्वन्—करते हुए; तत् आश्रमम्—उस घर को ।.
 
अनुवाद
 
 वे (शुकदेव गोस्वामी) किसी गृहस्थ के द्वार पर उतनी ही देर रुकते, जितने समय में गाय दुही जा सकती है। वे उस घर को पवित्र करने के लिए ही ऐसा करते थे।
 
तात्पर्य
 शुकदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित से मिले और उन्होंने श्रीमद्भागवत के मूल पाठ की व्याख्या कह सुनाई। वे किसी भी गृहस्थ के दरवाजे पर आधा घंटा से अधिक (जितने समय में गाय दुह ली जाती है) नहीं रुकते थे और भाग्यशाली गृहस्थ से भिक्षा प्राप्त करते थे। वे अपनी शुभ उपस्थिति से उस घर को पवित्र करने के लिए ऐसा करते थे। अतएव शुकदेव गोस्वामी ऐसे आदर्श उपदेशक हैं, जो दिव्य पद पर स्थित हैं। जो लोग संन्यास आश्रम में हैं और भगवान् के सन्देश का उपदेश देने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनके कार्यों से उन्हें यह सीखना चाहिए कि दिव्य ज्ञान प्रदान करने के अतिरिक्त गृहस्थों से उनका कोई सरोकार नहीं है। गृहस्थ से भिक्षा माँगने का उद्देश्य उसके घर को पवित्र करना होना चाहिए। जिस मनुष्य ने संन्यास ग्रहण कर लिया है उन को चाहिए कि वह गृहस्थ की सांसारिक सम्पन्नता से आकर्षित होकर सांसारिक मनुष्यों का गुलाम न बन जाय। जो मनुष्य संन्यास आश्रम ग्रहण कर चुकता है इस के लिए ऐसा करना विष पान तथा आत्महत्या से भी अधिक घातक है।
 
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