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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  1.5.1 
सूत उवाच
अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवा: ।
देवर्षि: प्राह विप्रर्षिं वीणापाणि: स्मयन्निव ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूतजी ने कहा; अथ—अतएव; तम्—उसको; सुखम् आसीन:—सुखपूर्वक बैठे हुए; उपासीनम्—पास बैठे हुए को; बृहत्-श्रवा:—अत्यन्त सम्मानित; देवर्षि:—देवताओं के परम ऋषि ने; प्राह—कहा; विप्रर्षिम्—ब्राह्मणों के ऋषि (ब्रह्मर्षि) से; वीणा-पाणि:—हाथ में वीणा लिए; स्मयन् इव—मानो हँसते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : इस तरह देवर्षि (नारद) सुखपूर्वक बैठ गये और मानो मुस्कराते हुए ब्रह्मर्षि (व्यासदेव) को सम्बोधित किया।
 
तात्पर्य
 नारद मुस्करा रहे थे, क्योंकि वे महर्षि वेदव्यास को तथा उनके असन्तोष के कारण को भलीभाँति जानते थे। जैसाकि व्यासदेव आगे बतायेंगे, उनका असन्तोष भक्तियोग को सही ढंग से प्रस्तुत न करने के कारण उत्पन्न था। नारद को यह त्रुटि ज्ञात थी और व्यास की दशा से इसकी पुष्टि हो गई।
 
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