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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  1.5.10 
न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा
न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षया: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; यत्—वह; वच:—वाणी; चित्र-पदम्—अलंकारिक; हरे:—भगवान् का; यश:—महिमा; जगत्—ब्रह्माण्ड; पवित्रम्—पवित्र; प्रगृणीत—वर्णित; कर्हिचित्—मुश्किल से; तत्—उस; वायसम्—कौवे को; तीर्थम्—तीर्थ-स्थान; उशन्ति—सोचते हैं; मानसा:—साधु पुरुष; —नहीं; यत्र—जहाँ; हंसा:—परमहंस पुरुष; निरमन्ति—आनन्द लेते हैं; उशिक्-क्षया:—दिव्य धाम के वासी ।.
 
अनुवाद
 
 जो वाणी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वायुमण्डल को परिशुद्ध करने वाले भगवान् की महिमा का वर्णन नहीं करती, उसे साधु पुरुष कौवों के स्थान के समान मानते हैं। चूँकि परमहंस पुरुष दिव्य लोक के वासी होते हैं, अत: उन्हें ऐसे स्थान में कोई आनन्द नहीं मिलता।
 
तात्पर्य
 कौवे तथा हंस अपनी भिन्न-भिन्न मानसिक प्रवृत्तियों के कारण एक-से नहीं होते। सकाम-कर्मियों या रजोगुणी व्यक्तियों की तुलना कौवों से की गई है और परमहंस साधु पुरुषों की तुलना हंसों से की गई है। कौवों को कूड़ा-करकट फेंका जाने वाला स्थान प्रिय लगता है, जिस प्रकार कि कामी सकाम कर्मियों को सुरा, सुन्दरी तथा स्थूल इन्द्रियतृप्ति के स्थान प्रिय लगते हैं। हंसों को वे स्थान प्रिय नहीं लगते, जहाँ कौवे काँव काँव करने और मिल-मिलाप करने के लिए एकत्र होते हैं। वे इसके बजाय प्राकृतिक छटा वाले स्थानों में देखे जाते हैं, जहाँ निर्मल जल का आगार होता है और जिसमें प्राकृतिक सौंदर्य के नाना रंग के कमलों के नाल सुशोभित रहते हैं। इन दो प्रकार के पक्षियों में यही अन्तर है।

प्रकृति ने विभिन्न योनियों के जीवों को भिन्न-भिन्न मानसिकताएँ दी हैं, अतएव उन्हें एक ही श्रेणी में लाना संभव नहीं है।

इसी प्रकार से विभिन्न मानसिकता वाले व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का साहित्य होता है। अधिकांशतया बाजारू-साहित्य कौवों-सरीखे व्यक्तियों को आकृष्ट करने वाला होता है, जिसमें कामुक विषयों का कूड़ा-करकट भरा रहता है। ऐसे विषय सामान्य रूप से स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म मन से सम्बद्ध होने से संसारी वार्ताएँ कहे जाते हैं। ये संसारी उपमाओं तथा रूपकों वाली अलंकारमयी भाषा में लिखे होते हैं। ऐसा होने पर इनमें भगवान् की महिमा का वर्णन नहीं रहता। ऐसा पद्य या गद्य, चाहे वह जिस विषय पर भी हो, शव को अलंकृत करने जैसा है। आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मनुष्य, जो हंसों के समान हैं, ऐसे मृत साहित्य में रुचि नहीं रखते, क्योंकि यह तो आध्यात्मिक दृष्टि से मृत पुरुषों के लिए ही आनन्द का स्रोत होता है। ऐसा रजो तथा तमो गुणी साहित्य विभिन्न शीर्षकों से वितरित किया जाता है, किन्तु इससे मानव की आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति नहीं हो पाती। अतएव हंस सदृश आध्यात्मिक पुरुषों को ऐसे साहित्य से कोई सरोकार नहीं होता। ऐसे उन्नत पुरुषों को मानस भी कहा जाता, क्योंकि वे आध्यात्मिक धरातल पर भगवान् की दिव्य स्वैच्छिक सेवा के आदर्श (मानदण्ड) को बनाये रखते हैं। यह चेतना स्थूल शारीरिक इन्द्रिय-तुष्टि के कार्यों या अहंकारी भौतिक मन के सूक्ष्म चिन्तन के लिए सकाम कर्म करने से रोक देती है।

सामाजिक साहित्यिक जन, विज्ञानी, संसारी कवि, मीमांसक तथा राजनीतिज्ञ जो इन्द्रिय-सुख की भौतिक प्रगति में पूर्ण रूप से लीन रहते हैं, सभी माया के हाथ की कठपुतलियाँ हैं। उन्हें उन्हीं स्थानों में आनन्द मिलता है, जहाँ तिरष्क्रित विषय फेंके जाते हैं। श्रीधर स्वामी के अनुसार यह वेश्यागामियों का आनन्द है।

लेकिन जो साहित्य भगवान् की महिमा का वर्णन करता है, उसका आनन्द वे परमहंस उठाते हैं, जिन्होंने मानव कार्यों के सारतत्व को प्राप्त कर लिया है।

 
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