आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान समस्त भौतिक आसक्ति से रहित होने पर भी शोभा नहीं देता यदि वह अच्युत (ईश्वर) के भाव से शून्य हो। तो फिर उन सकाम कर्मों से क्या लाभ है, यदि वे भगवान् की भक्ति के लिए काम न आ सकें और जो स्वभावत: प्रारम्भ से ही दुखप्रद तथा क्षणिक होते है?
तात्पर्य
जैसाकि ऊपर कहा गया है, न केवल भगवान् की दिव्य महिमा से विहीन सामान्य साहित्य भर्त्सना के योग्य है, अपितु भक्तिमय सेवा से विहीन निराकार ब्रह्म विषयक वैदिक साहित्य तथा चिन्तन भी भर्त्सना के योग्य है। यदि उपर्युक्त आधार पर निराकार ब्रह्म के चिन्तन की भर्त्सना की जा सकती है, तो उस सामान्य सकाम कर्म के विषय में क्या कहा जाय, जो भक्ति के उद्देश्य की पूर्ति करने वाला है ही नहीं? ऐसे तार्किक ज्ञान तथा सकाम कर्म से किसी को सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। सकाम कर्म, जिसमें लगभग सारे लोग लगे रहते हैं, या तो प्रारम्भ में ही या फिर अन्त में सदैव कष्टकारक होता है। यह तभी लाभप्रद हो सकता है, जब इसे भगवद्भक्ति के अधीन किया जाए। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि की गई है कि ऐसे सकाम कर्म के फल को भगवान् की सेवा में अर्पित कर देना चाहिए, अन्यथा वह भौतिक बन्धन का कारण होता है। सकाम कर्म के प्रामाणिक भोक्ता भगवान् हैं और जब इसे जीव की इन्द्रियतृप्ति में लगाया जाता है, तो यह घोर कष्ट का कारण बन जाता है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.