श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  1.5.13 
अथो महाभाग भवानमोघद‍ृक्
शुचिश्रवा: सत्यरतो धृतव्रत: ।
उरुक्रमस्याखिलबन्धमुक्तये
समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
अथो—अत:; महा-भाग—परम भाग्यशाली; भवान्—आप; अमोघ-दृक्—सिद्ध दृष्टा; शुचि—पवित्र, निर्मल; श्रवा:— प्रसिद्ध; सत्य-रत:—सत्य व्रत को पालने वाला; धृत-व्रत:—आध्यात्मिक गुणों में स्थित; उरुक्रमस्य—अलौकिक कार्य करनेवाले (ईश्वर) का; अखिल—सम्पूर्ण जगत का; बन्ध—बन्धन; मुक्तये—मुक्ति के लिए; समाधिना—समाधि के द्वारा; अनुस्मर—बारम्बार सोच कर वर्णन करो; तत्-विचेष्टितम्—भगवान् की विविध लीलाओं को ।.
 
अनुवाद
 
 हे व्यासदेव, तुम्हारी दृष्टि सभी तरह से पूर्ण है। तुम्हारी उत्तम ख्याति निष्कलुष है। तुम अपने व्रत में दृढ़ हो और सत्य में स्थित हो। अतएव तुम समस्त लोगों को भौतिक बन्धन से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान् की लीलाओं के विषय में समाधि के द्वारा चिन्तन कर सकते हो।
 
तात्पर्य
 जनसामान्य की स्वभाव से ही साहित्य के प्रति रुचि होती है। वे अज्ञात के विषय के बारे में किसी अधिकारी से सुनना तथा पढऩा चाहते हैं, लेकिन उनकी रुचि ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण साहित्य से बिगड़ जाती है, जो इन्द्रियों की तृप्ति कराने वाले विषयों से भरा होता है। ऐसे साहित्य में अनेक प्रकार की लौकिक कविताएँ तथा दार्शनिक कल्पनाएँ दी रहती हैं, जो न्यूनाधिक रूप से माया से प्रभावित रहती हैं और जिनका समापन इन्द्रिय-तृप्ति में होता है। ऐसा साहित्य, यद्यपि सही अर्थ में व्यर्थ होता है, लेकिन अल्पज्ञ लोगों के ध्यान को आकृष्ट करने के लिए खूब सजाया हुआ रहता है। इस प्रकार आसक्त जीव भवबन्धन में अधिकाधिक फँसते जाते हैं और हजारों पीढिय़ों तक उनके मोक्ष की कोई आशा नहीं रहती। वैष्णवों में श्रेष्ठतम श्री नारद ऋषि ऐसे व्यर्थ साहित्य के अभागे शिकारों के प्रति करुणा से अभिभूत होकर, श्री व्यासदेव को ऐसा दिव्य साहित्य रचने के लिए उपदेश देते हैं, जो न केवल आकर्षक हो अपितु सभी प्रकार के बन्धनों से मोक्ष प्रदान कराने वाला भी हो। श्रील व्यासदेव या उनके प्रतिनिधि सुपात्र हैं, क्योंकि वे वस्तुओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखने में भलीभाँति प्रशिक्षित हैं। श्रील व्यासदेव तथा उनके प्रतिनिधि अपने आध्यात्मिक प्रकाश के कारण शुद्ध विचार वाले हैं, अपनी भक्ति के कारण दृढ़व्रती हैं और भौतिक कार्यकलापों में सड़ रही पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध हैं। पतितात्माएँ नित्यप्रति नूतन समाचार प्राप्त करने की इच्छुक रहती हैं और व्यासदेव या नारद जैसे अध्यात्मवादी ही उन्हें आध्यात्मिक जगत के असीमित समाचार प्रदान कर सकते हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि यह भौतिक जगत अखिल सृष्टि का एक मात्र खंड है और यह पृथ्वी सम्पूर्ण भौतिक जगत का एक मात्र अंश है।

सारे विश्व में सहस्रों ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने हजारों-लाखों वर्षों से जनता की सूचना के लिए हजारों साहित्यिक कृतियाँ तैयार की हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इनमें से किसी के द्वारा भी पृथ्वी पर शान्ति तथा अमनचैन नहीं लाया जा सका। इसका कारण है इन कृतियों की आध्यात्मिक शून्यता। अतएव वैदिक साहित्य, विशेष रूप से भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत की संस्तुति की जाती है, जिससे भौतिक सभ्यता के उस चंगुल से अभीष्ट छुटकारा प्राप्त हो सके, जिससे मानव शक्ति का प्रमुख अंश क्षीण होती जा रहा है। भगवद्गीता स्वयं भगवान् द्वारा कहा गया संदेश है, जिसका अंकन व्यासदेव द्वारा हुआ और श्रीमद्भागवत उन्हीं भगवान् कृष्ण की लीलाओं का दिव्य आख्यान है। शाश्वत शान्ति तथा कष्टों से मुक्ति की जीव की लालसाओं को तुष्ट करने में यह ग्रंथ सर्व समर्थ है। अतएव श्रीमद्भागवत पूरे ब्रह्माण्ड के जीवों को समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से पूर्ण छुटकारा दिलाने के लिए है। भगवान् की लीलाओं का ऐसा दिव्य आख्यान व्यासदेव तथा उनके प्रामाणिक प्रतिनिधियों जैसे मुक्त जीवों द्वारा ही वर्णित किया जा सकता है, जो निरन्तर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लीन रहते हैं। केवल ऐसे ही भक्तों को भगवान् की लीलाएँ तथा उनकी दिव्य प्रकृति भक्ति के कारण स्वत: प्रकट हो पाती है। दूसरा कोई, चाहे अनेक वर्षों तक चिन्तन क्यों न करे, न तो भगवान् के कार्यों को जान सकता है, न उनका वर्णन कर सकता है। भागवत् के वर्णन इतने सूक्ष्म तथा सही होते हैं कि इस महान साहित्य में पाँच हजार वर्ष पूर्व जो भी भविष्यवाणी की गई थी, वह अब सही उतर रही है। अतएव लेखक की दृष्टि भूत, वर्तमान तथा भविष्य को पहचानती है। व्यासदेव जैसे मुक्त व्यक्ति न केवल दृष्टि-शक्ति तथा पाण्डित्य के मामले में पूर्ण हैं, अपितु श्रवण, चिन्तन, अनुभव तथा अन्य सभी ऐन्द्रिय कार्यों में भी सिद्ध होते हैं। मुक्त जीव की इन्द्रियाँ पूर्ण होती हैं और ऐसी पूर्ण इन्द्रियों से ही इन्द्रियों के स्वामी हृषीकेश या भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा की जा सकती है। अत: श्रीमद्भागवत वेदों के संकलनकर्ता, परम सिद्ध व्यक्ति श्रील वेदव्यास द्वारा किया गया पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का परिपूर्ण वर्णन है।

 
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