तुम भगवान् के अतिरिक्त विभिन्न रूपों, नामों तथा परिणामों के रूप में जो कुछ भी वर्णन करना चाहते हो, वह प्रतिक्रिया द्वारा मन को उसी प्रकार आंदोलित करने वाला है, जिस प्रकार आश्रय विहीन नाव को चक्रवात आंदोलित करता है।
तात्पर्य
श्री व्यासदेव वैदिक साहित्य के समस्त वर्णनों के सम्पादनकर्ता हैं, अतएव उन्होंने अनेक प्रकारों से दिव्य अनुभूति का वर्णन किया है—यथा सकाम कर्म, मीमांसा, योगशक्ति तथा भक्तिमय सेवा। इसके अतिरिक्त, उन्होंने विविध पुराणों में अनेक देवताओं की विभिन्न रूपों तथा नामों से पूजा किये जाने की संस्तुति भी की है। इसका परिणाम यह हुआ है कि जन-सामान्य भ्रांत हैं कि वे भगवान् की सेवा में अपना मन किस तरह स्थिर करें; वे आत्म-साक्षात्कार के सही मार्ग को ढूँढने के लिए सदा भ्रांत रहते हैं। श्रील नारददेव वेदव्यास द्वारा संकलित किए गए वैदिक साहित्य की इसी त्रुटि विशेष पर बल दे रहे हैं और इस तरह वे प्रत्येक वस्तु को केवल परमेश्वर से सम्बन्धित करते हुए वर्णन करने के लिए कह रहे हैं। वस्तुत: भगवान् के अतिरिक्त किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। भगवान् विभिन्न विस्तारों (अंशों) के रूप में प्रकट होते हैं। वे पूर्ण वृक्ष के मूल हैं। वे सम्पूर्ण शरीर के मानो उदर हैं। मूल में जल डालना ही वृक्ष को सीचने की सही विधि है। ठीक इसी तरह, पूरे शरीर को शक्ति प्रदान करने के लिए उदर को भोजन प्रदान करना है। इसीलिए श्रील व्यासदेव को चाहिए था कि भागवत पुराण के अतिरिक्त अन्य किसी पुराण का संकलन न करते, क्योंकि उसमें रंचमात्र विचलन से आत्म-साक्षात्कार में बड़ा उपद्रव हो सकता है। यदि रंचमात्र विचलन से ऐसा उपद्रव हो सकता है, तो परम सत्य भगवान् से पृथक् विचारों के जानबूझकर किये गए विस्तार के विषय में क्या कहा जाए? देवताओं की पूजा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें सर्वेश्वरवाद (बहुदेवतावाद) का जन्म होता है, जिसकी परिणति अनेक धार्मिक सम्प्रदायों की उत्पत्ति में होती है, जो भागवत के उन सिद्धान्तों की उन्नति के लिए घातक है, जो दिव्य प्रेमाभक्ति द्वारा भगवान् के नित्य सम्बन्ध में आत्म-साक्षात्कार के लिए सही दिशा का निर्देश करने वाले हैं। इस प्रसंग में चक्रवात से विचलित नाव का उदाहरण उपयुक्त है। बहुदेवतावादी का विचलित मन उद्देश्य के स्थिर न होने के कारण कभी भी आत्म- साक्षात्कार की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता।
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