जिसने भगवान् की भक्तिमय सेवा में प्रवृत्त होने के लिए अपनी भौतिक वृत्तियों को त्याग दिया है, वह कभी-कभी कच्ची अवस्था में नीचे गिर सकता है, तो भी उसके असफल होने का कोई खतरा नहीं रहता। इसके विपरीत, अभक्त, चाहे अपनी वृत्तियों (कर्तव्यों) में पूर्ण रूप से रत क्यों न हो, उसे कुछ भी लाभ नहीं होता।
तात्पर्य
जहाँ तक मानव जाति के कर्तव्यों का सम्बन्ध है, उसके कर्तव्य असंख्य हैं। प्रत्येक व्यक्ति, न केवल अपने माता-पिता, कुटुम्बियों, समाज, देश, मानवता, अन्य जीवों एवं देवताओं के प्रति कर्तव्यबद्ध है, अपितु महान दार्शनिकों, कवियों, वैज्ञानिकों के प्रति भी है। शास्त्रों का मत है कि मनुष्य ऐसे सारे कर्तव्यों को त्याग कर भगवान् की शरण ग्रहण कर सकता है। अत: यदि कोई इस तरह से करता है और यदि भगवान् की भक्तिमय सेवा करने में सफल हो जाता है, तो यह शुभ ही है। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य क्षणिक भावावेश में आकर भगवान् की सेवा में समर्पित तो हो जाता है, लेकिन अन्त तक किसी न किसी कारण से, कुसंगतिवश सेवामार्ग से च्युत हो जाता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। भरत महाराज को एक मृग के प्रति आसक्त होने के कारण मृग का शरीर धारण करना पड़ा। जब वे मर रहे थे, तो मृग के विषय में सोच रहे थे। अतएव अगले जन्म में वे मृग बने, लेकिन वे अपने पूर्वजन्म की घटना को भूले नहीं थे। इसी प्रकार शिवजी के चरणों के प्रति अपराध करने के कारण चित्रकेतु का भी पतन हुआ। लेकिन, तो भी, भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने पर यहाँ बल दिया जा रहा है। भले ही इसमें से नीचे गिरने का भय बना रहता है, क्योंकि यद्यपि मनुष्य भक्ति कार्यों से नीचे गिरता है, लेकिन वह भगवान् के चरणकमलों को कभी भी नहीं भूलता। एक बार भगवान् की भक्तिमय सेवा में लग जाने पर वह सभी परिस्थितियों में उनकी सेवा में बना रहेगा। भगवद्गीता में कहा गया है कि किञ्चित भक्ति भी मनुष्य को अत्यन्त घातक स्थिति से बचा सकती है। इतिहास में ऐसी घटनाओं के अनेक उदाहरण हैं। इनमें से अजामिल एक है। अजामिल अपने प्रारम्भिक जीवन में भक्त था, किन्तु युवावस्था में वह भक्ति से च्युत हो गया। तो भी भगवान् ने अन्त में उसकी रक्षा की।
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