हे प्रिय व्यास, यद्यपि भगवान् कृष्ण का भक्तभी कभी-कभी, किसी न किसी कारण से नीचे गिर जाता है, लेकिन उसे दूसरों (सकाम कर्मियों आदि) की तरह भव-चक्र में नहीं आना पड़ता, क्योंकि जिस व्यक्ति ने भगवान् के चरणकमलों का आस्वादन एक बार किया है, वह उस आनन्द को पुन: पुन: स्मरण करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।
तात्पर्य
भगवद्भक्त स्वत: संसार के सम्मोहन से विरत हो जाता है, क्योंकि वह रसग्रह होता है, अर्थात् वह भगवान् के चरणकमलों का आस्वादन कर चुका होता है। निश्चय ही, ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें भगवान् के भक्त कुसंगति के कारण नीचे गिरे हैं, मानो सकाम कर्मी हों, जिनका पतन सदैव होता रहता है। किन्तु नीचे गिरने पर भी भक्त को कभी कर्मी के समान पतित नहीं समझना चाहिए। कर्मी अपने कर्मों के फल को भोगता है, जबकि भक्त भगवान् द्वारा प्रताडि़त होने के कारण सुधर जाता है। एक अनाथ बालक तथा एक राजपुत्र के कष्ट एक-से नहीं होते। अनाथ वास्तव में दीन होता है, क्योंकि उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होता, लेकिन एक धनवान का लाड़ला पुत्र, भले ही अनाथ-जैसा लगे, किन्तु वह सदैव अपने समर्थ पिता के संरक्षण में रहता है। भगवद्भक्त कभी-कभी कुसंगतिवश सकाम कर्मी की नकल करता है। सकाम कर्मी भौतिक जगत पर अपना प्रभुत्व जताना चाहता है। इसी प्रकार एक नवजिज्ञासु भक्त भी मूर्खतावश भक्तिमय सेवा के बदले कुछ भौतिक शक्ति संचित करने की सोचता है।
कभी-कभी ऐसे मूर्ख भक्तों को स्वयं भगवान् कष्ट में डाल देते हैं। और यदि वे विशेष अनुग्रह करते हैं, तो उसका सारा भौतिक साज-सामान हर लेते हैं। ऐसी कार्यवाही से, व्यग्र हुए भक्त के सारे मित्र तथा कुटुम्बी उसका साथ छोड़ देते हैं और भगवान् की कृपा से उसे पुन: चेत जाता है और वह अपनी भक्ति सही ढंग से करने लगता है।
भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि ऐसे पतित भक्तों को किसी अत्यन्त विद्वान ब्राह्मण कुल में या सम्पन्न वैश्य परिवार में जन्म लेने का अवसर दिया जाता है। ऐसी दशा में भक्त उतना भाग्यशाली नहीं होता जितना कि भगवान् द्वारा प्रताडि़त भक्त, जिसे एक तरह से असहायावस्था में रख दिया जाता है। जो भक्त भगवान् की इच्छा से असहाय बन जाता है, वह इन उत्तम कुलों में उत्पन्न भक्तों से अधिक भाग्यशाली होता है। उत्तम कुलों में उत्पन्न ये पतित भक्त कम भाग्यशाली होने के कारण भगवान् के चरणकमलों को भूल सकते हैं, लेकिन असहाय अवस्था को प्राप्त भक्त अधिक भाग्यशाली होता है, क्योंकि वह अपने को चारों ओर से असहाय पाकर भगवान् के चरणकमलों में तेजी से लौट आता है।
शुद्ध भक्ति मय सेवा आध्यात्मिक दृष्टि से इतनी आस्वादनीय है कि भक्त स्वत: भौतिक भोग के प्रति अन्यमनस्क हो जाता है। प्रगतिशील भक्ति की दिशा में यह पूर्णता का प्रतीक है। शुद्ध भक्त निरन्तर भगवान् कृष्ण के चरणकमलों को स्मरण में रखता है और उन्हें एक क्षण भी नहीं भुलाता, भले ही उसे तीनों लोकों का ऐश्वर्य क्यों न मिल जाये।
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