नारद उवाच
पाराशर्य महाभाग भवत: कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥ २ ॥
शब्दार्थ
नारद: उवाच—नारद ने कहा; पाराशर्य—हे पराशर-पुत्र; महा-भाग—परम भाग्यशाली; भवत:—आपका; कच्चित्— यदि यह है; आत्मना—आत्म-साक्षात्कार से; परितुष्यति—तुष्टि होती है; शारीर:—शरीर की पहचान; आत्मा—स्व; मानस:—मन की पहचान; एव—निश्चय ही; वा—तथा ।.
अनुवाद
व्यासदेव को पराशर पुत्र, सम्बोधित करते हुए नारद ने पूछा : क्या तुम मन या शरीर को आत्म-साक्षात्कार का लक्ष्य मान कर सन्तुष्ट हो?
तात्पर्य
नारद द्वारा व्यासदेव को उनके असंतोष के कारण का यह संकेत था। व्यासदेव को, अत्यन्त शक्तिसम्पन्न ऋषि, पराशर के वंशज होने के कारण, असामान्य पैतृक विशेषाधिकार प्राप्त था, जिससे उनके असंतुष्ट रहने का कोई कारण नहीं होना चाहिए था। महान पिता के महान पुत्र होने के कारण उन्हें चाहिए था कि आत्मा की पहचान शरीर या मन से न करते। अल्प बुद्धि वाले सामान्य जन शरीर को या मन को आत्मा के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, लेकिन व्यासदेव को ऐसा नहीं करना चाहिए था। स्वभावत: कोई तब तक प्रसन्न नहीं रह सकता, जब तक सचमुच वह आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त न हो, जो भौतिक शरीर तथा मन से परे है।
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