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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  1.5.20 
इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो
यतो जगत्स्थाननिरोधसम्भवा: ।
तद्धि स्वयं वेद भवांस्तथापि ते
प्रादेशमात्रं भवत: प्रदर्शितम् ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
इदम्—यह; हि—सम्पूर्ण; विश्वम्—विश्व; भगवान्—भगवान्; इव—प्राय: वैसा ही; इतर:—ऊपर से भिन्न; यत:— जिससे; जगत्—संसार; स्थान—अवस्थित हैं; निरोध—संहार; सम्भवा:—उत्पत्ति; तत् हि—विषयक; स्वयम्—अपने आप; वेद—जानो; भवान्—आप; तथा अपि—फिर भी; ते—तुमको; प्रादेश-मात्रम्—मात्र सारांश; भवत:—तुमको; प्रदर्शितम्—बताया गया ।.
 
अनुवाद
 
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् स्वयं विश्व स्वरूप हैं तथापि उससे निर्लिप्त भी हैं। उन्हीं से यह दृश्य जगत उत्पन्न हुआ है, उन्हीं पर टिका है और संहार के बाद उन्हीं में प्रवेश करता है। तुम इस सबके विषय में जानते हो। मैंने तो केवल सारांश भर प्रस्तुत किया है।
 
तात्पर्य
 शुद्ध भक्त के लिए मुकुन्द, भगवान् श्रीकृष्ण सम्बन्धी धारणा सगुण तथा निर्गुण दोनों ही होती है। व्यक्तित्वविहीन विश्व-स्थिति भी मुकुन्द है, क्योंकि यह मुकुन्द की शक्ति का ही प्राकट्य है। उदाहरणार्थ, वृक्ष अपने में पूर्ण इकाई है लेकिन पत्तियाँ तथा शाखाएँ वृक्ष से प्रकट हुए अंश (अंग) स्वरूप हैं। वृक्ष की पत्तियाँ तथा शाखाएँ भी वृक्ष हैं, लेकिन वृक्ष स्वयं न तो पत्तियाँ है, न शाखाएँ। वेदों का यह कथन है कि समस्त दृश्य जगत ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है, यह बताता है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु परमब्रह्म से उद्भूत है, अतएव उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार अंग के रूप में हाथ तथा पाँव शरीर कहलाते हैं, लेकिन पूर्ण इकाई के रूप में शरीर न तो हाथ है, न पाँव। भगवान् तो शाश्वतता, ज्ञान तथा सौंदर्य के दिव्य रूप हैं, अतएव भगवान् की शक्ति की सृष्टि भी अंशत: सच्चिदानन्द स्वरूप प्रतीत होती है। इसलिए बहिरंगा शक्ति, माया के प्रभाव से सारे बद्धजीव भौतिक प्रकृति के बन्धन में बँधे हुए हैं। वे इसे ही सब कुछ मान लेते हैं, क्योंकि उन्हें आदि कारण भगवान् का कोई ज्ञान नहीं होता। न ही उन्हें इसका पता रहता है कि शरीर के अंगों को यदि सम्पूर्ण शरीर से विलग कर दिया जाय, तो हाथ या पाँव वही हाथ पाँव नहीं रह जाते जैसे कि वे शरीर से संयुक्त होने पर थे। इसी प्रकार ईश्वर-विहीन सभ्यता, पूर्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति से कट कर छिन्न हाथ या पाँव की तरह होती है। ऐसे अंग हाथ तथा पाँव जैसे भले ही लगें, लेकिन उनमें वह क्षमता नहीं रह जाती। भगवद्भक्त श्रील व्यासदेव इसे भलीभाँति जानते हैं। श्रील नारद उन्हें आगे इस विचार को पल्लवित करने की सलाह देते हैं जिससे बन्धन में फँसे हुए बद्धजीव उनसे शिक्षा ग्रहण करके भगवान् को आदि कारण के रूप में समझ सकें।

वैदिक मत के अनुसार, भगवान् स्वभावत: पूर्ण शक्तिमान हैं और इस प्रकार उनकी सर्वोपरि शक्तियाँ सदैव पूर्ण तथा उनसे अभिन्न होती हैं। आध्यात्मिक तथा भौतिक आकाश एवं इन दोनों की सामग्रियाँ भगवान् की अन्तरंगा तथा बहिरंगा शक्तियों का प्राकट्य हैं। बहिरंगा शक्ति अपेक्षतया निकृष्ट है और अन्तरंगा शक्ति श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ शक्ति (परा) जीवनी शक्ति है, अतएव यह पूर्ण रूप से अभिन्न है, लेकिन बहिरंगा शक्ति, निष्क्रिय होने के कारण अंशत: अभिन्न है। किन्तु ये दोनों ही शक्तियाँ न तो समस्त शक्तियों के जनक भगवान् के समान हैं, न उनसे बढक़र हैं। ऐसी शक्तियाँ सदैव उनके अधीन होती हैं, जिस प्रकार कि विद्युत शक्ति, चाहे वह कितनी ही तेजोमय क्यों न हो, सदैव इंजीनियर के नियंत्रण में रहती है।

मनुष्य तथा अन्य सभी प्राणी उन्हीं भगवान् की अन्तरंगा शक्तियों से उत्पन्न हैं। इस प्रकार जीव भी भगवान् से अभिन्न है। किन्तु वह कभी भी न तो भगवान् के तुल्य है और न उनसे श्रेष्ठ। भगवान् तथा सारे जीव व्यष्टि व्यक्ति हैं। भौतिक शक्तियों के द्वारा जीव भी कुछ न कुछ सृजन करते रहते हैं, किन्तु उनकी कोई भी सृष्टि न तो भगवान् की सृष्टियों के समान होती है, न उनसे बढक़र। मनुष्य एक छोटा-सा खिलौना-जैसा स्पुतनिक बनाकर बाह्य आकाश में प्रक्षेपित कर सकता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता है कि वह पृथ्वी या चन्द्रमा जैसा ग्रह बनाकर भगवान् की भाँति उसे वायु में तैरा सकता है। अल्पज्ञ लोग अपने को भगवान् के समान बताते हैं, लेकिन वे कभी भी भगवान् के तुल्य नहीं हो सकते हैं और न कभी होंगे। मनुष्य, पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के बाद, भगवान् के गुणों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत (७८ प्रतिशत) प्राप्त कर सकता है, तो भी भगवान् से आगे बढ़ पाना या उनके तुल्य हो पाना असम्भव है। केवल रुग्ण दशा में ही मूर्ख व्यक्ति भगवान् से एक होने का दावा करता है और इस तरह वह माया द्वारा भ्रमित होता रहता है। अतएव भ्रमित जीव को भगवान् की श्रेष्ठता स्वीकार करनी चाहिए और उनकी प्रेममय सेवा करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जीवों की उत्पत्ति ही इसीलिए हुई है। इसके बिना विश्व में किसी प्रकार की शान्ति या सौहार्द नहीं आ सकता। श्रील नारद श्रील व्यासदेव को भागवत में इस विचार को विस्तार देने का उपदेश देते हैं। भगवद्गीता में भी इसी विचार की व्याख्या की गई है कि भगवान् के चरणकमलों में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ। पूर्ण मानव का यही एकमात्र कार्य है।

 
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