श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  1.5.21 
त्वमात्मनात्मानमवेह्यमोघद‍ृक्
परस्य पुंस: परमात्मन: कलाम् ।
अजं प्रजातं जगत: शिवाय त-
न्महानुभावाभ्युदयोऽधिगण्यताम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
त्वम्—तुम; आत्मना—अपने आप से; आत्मानम्—भगवान् को; अवेहि—ढूँढो; अमोघ-दृक्—पूर्ण दृष्टि वाला; परस्य— अध्यात्म का; पुंस:—भगवान्; परमात्मन:—परमात्मा का; कलाम्—अंश; अजम्—अजन्मा; प्रजातम्—जन्म लिया गया; जगत:—संसार के; शिवाय—कल्याण के लिए; तत्—उस; महा-अनुभाव—पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की; अभ्युदय:—लीलाएँ; अधिगण्य-ताम्—विस्तार से बताओ ।.
 
अनुवाद
 
 तुममें पूर्ण दृष्टि है। तुम पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जान सकते हो, क्योंकि तुम भगवान् के अंश के रूप में विद्यमान हो। यद्यपि तुम अजन्मा हो, लेकिन समस्त लोगों के कल्याण हेतु इस पृथ्वी पर प्रकट हुए हो। अत: भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का अधिक विस्तार से वर्णन करो।
 
तात्पर्य
 श्रील व्यासदेव भगवान् श्रीकृष्ण के शक्त्यावेश अवतार हैं। वे भौतिक जगत के पतित जीवों के उद्धार हेतु अपनी अहैतुकी कृपावश अवतरित हुए। पतित तथा विस्मृत जीव भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा से विच्छिन्न रहते हैं। सारे जीव भगवान् के अंश हैं और उन के सनातन सेवक हैं। अतएव सारा वैदिक साहित्य इन्हीं पतित जीवों के लाभ हेतु कर्मबद्ध किया गया है। पतित जीवों का यह कर्तव्य है कि ऐसे साहित्य का लाभ उठाएँ और भव-बन्धन से अपने को मुक्त करें। यद्यपि श्रील नारद ऋषि श्रील व्यासदेव के औपचारिक गुरु हैं, लेकिन श्रील व्यासदेव गुरु पर निर्भर नहीं हैं, क्योंकि वे मूल रूप से अन्य सबों के गुरु हैं। चूँकि वे आचार्य का कार्य कर रहे हैं, अत: उन्होंने अपने आचरण से लोगों को यह प्रदर्शित किया है कि मनुष्य को गुरु बनाना चाहिए, भले ही वह साक्षात् ईश्वर ही क्यों न हो। भगवान् श्रीकृष्ण, भगवान् श्रीराम तथा भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु, सभी ने परमेश्वर के अवतार होते हुए भी औपचारिक गुरु स्वीकार किये, यद्यपि अपने दिव्य स्वभाव के कारण वे समस्त ज्ञान के आगार थे। सामान्य जनता को भगवान् श्रीकृष्ण के चरणाकमलों का दिशा-निर्देश करने के लिए वे स्वयं, व्यासदेव के अवतार के रूप में, भगवान् की दिव्य लीलाओं का उद्घाटन कर रहे हैं।
 
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