विद्वन्मण्डली ने यह स्पष्ट निष्कर्ष निकाला है कि तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञ, दान तथा स्तुति-जप का अचूक प्रयोजन (उद्देश्य) उत्तमश्लोक भगवान् की दिव्य लीलाओं के वर्णन में जाकर समाप्त होता है।
तात्पर्य
मनुष्य के मस्तिष्क का विकास कला, विज्ञान, दर्शन, भौतिकी, रसायन, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि के ज्ञान की उन्नति के लिए हुआ है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन द्वारा मानव-समाज को जीवन की पूर्णता प्राप्त हो सकती है। जीवन की इस पूर्णता का अन्त परम पुरुष विष्णु की प्राप्ति में होता है। अत: श्रुति का निर्देश है कि जो वास्तविक रूप में ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं, उन्हें भगवान् विष्णु की सेवा की आकांक्षा करनी चाहिए। दुर्भाग्यवश जो लोग विष्णु-माया के बाह्य सौंदर्य से मुग्ध हो गए हैं, वे यह नहीं समझ पाते हैं कि पूर्णता या आत्म-साक्षात्कार की चरम परिणति विष्णु पर निर्भर करती है। विष्णु-माया का अर्थ है इन्द्रिय भोग, जो क्षणिक तथा दुखमय है। जो लोग विष्णु-माया के चंगुल में फंसे हुए हैं, वे ज्ञान की उन्नति का उपयोग इन्द्रिय-भोग के लिए करते हैं। श्री नारद मुनि ने बताया है कि विराट ब्रह्माण्ड की सारी सामग्री (साज-समान) भगवान् की विभिन्न शक्तियों का प्राकट्य मात्र है, क्योंकि उन्होंने अपनी अकल्पनीय शक्ति के द्वारा सृजित जगत की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को गति प्रदान की है।
वे उन्हीं की शक्ति से उद्भूत हैं, उनकी शक्ति पर आधारित हैं और प्रलय के बाद उन्हीं में लीन हो जाती हैं। अतएव उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है, किन्तु साथ ही वे सदैव उनसे भिन्न रहते हैं। जब ज्ञान की उन्नति का सदुपयोग भगवान् की सेवा के लिए किया जाता है, तो सारी प्रक्रिया परिपूर्ण बन जाती है। भगवान् तथा उनका दिव्य नाम, यश, महिमा इत्यादि सभी कुछ उनसे अभिन्न हैं, अतएव समस्त मुनियों तथा भगवद्भक्तों ने संस्तुति की है कि कला, विज्ञान, दर्शन, भौतिकी, रसायन, मनोविज्ञान तथा ज्ञान की अन्य शाखाओं का उपयोग पूर्ण रूप से तथा एकान्तिक भाव में भगवान् की सेवा के लिए किया जाय। कला, साहित्य, पद्य, चित्रकला आदि का उपयोग भगवान् के यशोगान में किया जा सकता है। उपन्यासकार, कवि तथा विख्यात साहित्यकार सामान्य रूप से कामुक विषयों के लेखन में लगे रहते हैं, किन्तु यदि वे भगवान् की सेवा में लग जायें तो वे भगवान् की दिव्य लीलाओं का वर्णन कर सकते हैं। वाल्मीकि एक महान कवि थे और उसी प्रकार व्यासदेव एक महान लेखक हैं और ये दोनों ही भगवान् की लीलाओं का उद्घाटन करने में लगे रहे और इसी कारण वे अमर हो गये हैं। इसी प्रकार विज्ञान तथा दर्शन का उपयोग भी भगवान् की सेवा के लिए किया जाना चाहिए। इन्द्रियतृप्ति के लिए कोरे सिद्धान्त प्रस्तुत करते रहने से कोई लाभ नहीं है। दर्शन तथा विज्ञान को भगवान् की महिमा को प्रस्थापित करने में प्रयुक्त किया जाना चाहिए। समुन्नत लोग विज्ञान के माध्यम से परम सत्य को जानने के लिए उत्सुक होते हैं, अतएव महान वैज्ञानिक का यह कर्तव्य है कि वैज्ञानिक आधार पर भगवान् के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए प्रयास करे। इसी प्रकार दार्शनिक चिन्तनों का उपयोग परम सत्य को संवेदना-युक्त तथा सर्वशक्तिमान के रूप में स्थापित करने में किया जाना चाहिए। इसी प्रकार से ज्ञान की अन्य समस्त शाखाओं का उपयोग सदा भगवान् की सेवा के लिए किया जाना चाहिए। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि की गई है। वह सारा “ज्ञान” अज्ञान के अतिरिक्त कुछ नहीं है, यदि उसे भगवान् की सेवा में न लगाया जाय। उन्नत ज्ञान का वास्तविक सदुपयोग भगवान् की महिमा को स्थापित करना है और यही वास्तविक लक्ष्य है। भगवान् की सेवा में लगा हुआ सारा वैज्ञानिक ज्ञान तथा इसी प्रकार के सारे कार्यकलाप वास्तव में हरि कीर्तन अर्थात् भगवान् की महिमा का गायन है।
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