श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  1.5.23 
अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने
दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां
शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अहम्—मैं; पुरा—प्राचीन काल में, पहले; अतीत-भवे—पूर्व कल्प में; अभवम्—हो गया; मुने—हे मुनि; दास्या:— दासी का; तु—लेकिन; कस्याश्चन—किसी; वेद-वादिनाम्—वेदान्त के अनुयायियों का; निरूपित:—लगा हुआ; बालक:—छोटा नौकर; एव—केवल; योगिनाम्—भक्तों की; शुश्रूषणे—सेवा में; प्रावृषि—वर्षा ऋतु के चार मासों में; निर्विविक्षताम्—साथ रहते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 हे मुनि, पिछले कल्प में मैं किसी दासी के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जो वेदान्त सिद्धान्तों के अनुयायी ब्राह्मणों की सेवा करती थी। जब वे लोग वर्षा ऋतु के चातुर्मास में साथ-साथ रहते थे, तो मैं उनकी सेवा टहल (व्यक्तिगत सेवा) किया करता था।
 
तात्पर्य
 श्री नारद मुनि ने यहाँ पर भगवान् की भक्ति से सिक्त वातावरण की अद्भुतता का संक्षिप्त वर्णन किया है। वे एक अत्यन्त महत्त्वहीन माता-पिता की सन्तान थे। उनकी शिक्षा ठीक से नहीं हुई थी। तो भी उनकी समस्त शक्ति भगवान् की सेवा में संलग्न रहने के कारण वे अमर मुनि बन गये। ऐसी होती है भक्तिमय सेवा की शक्ति। सारे जीवात्मा भगवान् की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनकी सार्थकता भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति करने में है। जब ऐसा नहीं हो पाता, तो मनुष्य की वह स्थिति माया कहलाती हैं। अतएव ज्योंही मनुष्य अपनी पूरी शक्ति को इन्द्रिय-भोग में न लगाकर भगवान् की सेवा में लगाता है, तो माया का सारा भ्रम दूर हो जाता है। श्री नारदमुनि के पूर्वजन्म के निजी उदाहरण से यह स्पष्ट है कि भगवान् की सेवा भगवान् के प्रामाणिक सेवकों की सेवा से ही प्रारम्भ होती है। भगवान् कहते हैं कि मेरे दासों की सेवा मेरी निजी सेवा से बढक़र है। भक्त की सेवा भगवान् की सेवा से अधिक मूल्यवान है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की सेवा में निरन्तर रत रहने वाले भगवान् के किसी प्रामाणिक सेवक को चुने, उसे अपना गुरु बनाए और उस गुरु की सेवा में अपने को लगाए। ऐसा गुरु एक पारदर्शी माध्यम है, जिससे उन भगवान् का दर्शन किया जा सकता है, जो भौतिक इन्द्रियों के बोध से परे हैं। प्रामाणिक गुरु की सेवा के अनुपात से ही भगवान् उसे अपनी अनुभूति कराते हैं। भगवान् की सेवा में मानव-शक्ति का सदुपयोग मुक्ति का प्रगतिशील पथ है। प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में भगवान् की सेवा करने पर, सारी विराट सृष्टि तुरन्त भगवान् से अभिन्न बन जाती है। सक्षम गुरु को वह कला ज्ञात रहती है, जिससे प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् के यशोगान के लिए किया जा सकता है, अत: उनके मार्गदर्शन से भगवान् के सेवक की दिव्य कृपा से सारे जगत को वैकुण्ठ धाम में परिणत किया जा सकता है।
 
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