श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  1.5.24 
ते मय्यपेताखिलचापलेऽर्भके
दान्तेऽधृतक्रीडनकेऽनुवर्तिनि ।
चक्रु: कृपां यद्यपि तुल्यदर्शना:
शुश्रूषमाणे मुनयोऽल्पभाषिणि ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
ते—वे; मयि—मुझ में; अपेत—न भोगकर; अखिल—सभी प्रकार की; चापले—रुचियाँ; अर्भके—बालक में; दान्ते—इन्द्रियों को वश में करके; अधृत-क्रीडनके—खेल-कूद की आदतों में अभ्यस्त न होकर; अनुवर्तिनि— आज्ञाकारी; चक्रु:—प्रदान किया; कृपाम्—अहैतुकी कृपा; यद्यपि—यद्यपि; तुल्य-दर्शना:—स्वभाव से निष्पक्ष; शुश्रूषमाणे—श्रद्धावान के प्रति; मुनय:—वेदान्त के अनुयायी मुनिगण; अल्प-भाषिणि—मितभाषी, कम बोलने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 यद्यपि वे स्वभाव से निष्पक्ष थे, किन्तु उन वेदान्त के अनुयायिओं ने मुझ पर अहैतुकी कृपा की। जहाँ तक मेरी बात थी, मैं इन्द्रियजित था और बालक होने पर भी खेलकूद से अनासक्त था। साथ ही, मैं चपल न था और कभी भी जरूरत से ज्यादा बोलता नहीं था (मितभाषी था)।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में भगवान् कहते है, “सारे वेद मेरी खोज कर रहे हैं।” भगवान् श्री चैतन्य का कहना है कि वेदों के केवल तीन विषय हैं—भगवान् के साथ जीवों का सम्बन्ध स्थापित करना, भक्ति कर्म करना तथा इस प्रकार से भगवद्धाम जाने का परम उद्देश्य प्राप्त करना। इस तरह इन वेदान्तवादियों से भगवान् के शुद्ध भक्त के संकेत मिलते हैं। ऐसे वेदान्तवादी या भक्तिवेदान्त भक्ति के दिव्य ज्ञान का वितरण निष्पक्ष भाव से करते हैं। उनके लिए न कोई मित्र है और न कोई शत्रु; न कोई शिक्षित है और न अशिक्षित; न कोई विशेष रूप से अनुकूल है और न कोई प्रतिकूल। भक्तिवेदान्तीजन यह देखते हैं कि लोग सामान्य रूप से झूठी कामोद्दीपक वस्तुओं में अपना समय गँवाते हैं। उनका कार्य है अज्ञानी जनता के भगवान् के साथ भूले हुए सम्बन्ध को पुन: स्थापित कराना। ऐसे प्रयास से विस्मृत से विस्मृत जीव को भी आध्यात्मिक जीवन का बोध हो जाता है और इस प्रकार भक्तिवेदान्तों द्वारा प्रेरित सामान्य लोग धीरे-धीरे दिव्य अनुभूति के पथ पर अग्रसर होने लगते हैं। इस प्रकार वेदान्त-वादियों ने उस बालक को इन्द्रियजित बनने के पूर्व ही दीक्षित कर लिया था और वह बचपन के खेलकूद से विरक्त हो गया था। किन्तु दीक्षा के पूर्व वह बालक अत्यधिक अनुशासित हो चुका था, क्योंकि इस मार्ग पर चलने वाले के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। मानव-जीवन के वास्तविक शुभारम्भ के समय से वर्णाश्रम धर्म प्रणाली में बालकों को पाँच वर्ष की आयु के बाद गुरु आश्रम में ब्रह्मचारी बनने के लिए भेजा जाता है, जहाँ उन्हें ये सारी चीजें नियमित ढंग से सिखाई जाती हैं, चाहे वे सामान्य नागरिकों के पुत्र हों या राजकुमार हों। यह प्रशिक्षण न केवल राज्य में अच्छे नागरिक उत्पन्न करने के निमित्त भी अनिवार्य था, अपितु बालक को भावी जीवन में आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त करने के लिए उसे तैयार करने के लिए भी अनिवार्य था। वर्णाश्रम प्रणाली का पालन करने वाले बालकों को इन्द्रिय-भोग के अनुत्तरदायी जीवन का पता ही नहीं रहता था। यहाँ तक कि जब पिता बालक को माता के गर्भ में स्थापित करता था, तो वह भी आध्यात्मिक संस्कार द्वारा होता था। बालक को भव-बन्धन से मुक्त कराकर उसे सफलता दिलाना माता-पिता का उत्तरदायित्व हुआ करता था। यही सफल परिवार नियोजन की विधि है। इसका उद्देश्य था पूर्ण सफलता के लिए सन्तान उत्पन्न करना। इन्द्रियजित हुए बिना, अनुशासित हुए बिना तथा पूर्ण रूप से आज्ञाकारी हुए बिना कोई भी व्यक्ति गुरु के उपदेशों का पालन करनें में सफल नहीं हो सकता और ऐसा किये बिना कोई भी व्यक्ति भगवान् के धाम को प्राप्त नहीं कर सकता।
 
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