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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  1.5.25 
उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजै:
सकृत्स्म भुञ्जे तदपास्तकिल्बिष: ।
एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस-
स्तद्धर्म एवात्मरुचि: प्रजायते ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
उच्छिष्ट-लेपान्—जूठन; अनुमोदित:—अनुमति से; द्विजै:—वेदान्ती ब्राह्मणों द्वारा; सकृत्—एक बार; स्म—था; भुञ्जे— ग्रहण किया; तत्—उस कार्य से; अपास्त—नष्ट हो गये; किल्बिष:—सारे पाप; एवम्—इस प्रकार; प्रवृत्तस्य—लगे हुए; विशुद्ध-चेतस:—शुद्ध चित्त वाले का; तत्—वह विशेष; धर्म:—स्वभाव; एव—निश्चय ही; आत्म-रुचि:—दिव्य आकर्षण; प्रजायते—प्रकट हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 उनकी अनुमति से मैं केवल एक बार उनकी जूठन खाता था और ऐसा करने से मेरे सारे पाप तुरन्त ही नष्ट हो गये। इस प्रकार सेवा में लगे रहने से मेरा हृदय शुद्ध हो गया और तब वेदान्तियों का स्वभाव मेरे लिए अत्यन्त आकर्षक बन गया।
 
तात्पर्य
 शुद्ध भक्ति संक्रामक रोग तुल्य है, किन्तु वह शुद्ध भाव में संक्रामक है। शुद्ध भक्त समस्त प्रकार के पापों से निर्मल हो जाता है। भगवान् विशुद्धतम सत्ता हैं और जब तक कोई भौतिक गुणों की संक्रामकता के द्वारा उन्हीं के समान शुद्ध न हो ले, तब तक वह भगवान् का शुद्ध भक्त नहीं बन सकता। जैसाकि पहले कहा जा चुका है, भक्तिवेदान्तजन शुद्ध भक्त थे और यह बालक उनकी संगति से तथा एक बार उनका जूठन खाने से उनके गुणों से अभिभूत हो गया। ऐसी जूठन शुद्ध भक्तों की अनुमति के बिना भी ग्रहण की जा सकती है। लेकिन कभी-कभी छद्म भक्त भी होते हैं, अत: उनसे अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसी अनेक बातें हैं, जो भक्ति करने में बाधक होती हैं। किन्तु शुद्ध भक्तों की संगति से ऐसे सारे अवरोध दूर हो जाते हैं। नवदीक्षित भक्त शुद्ध भक्त के दिव्य गुणों से लगभग पूरित हो जाता है, जिसका अर्थ है भगवान् के नाम, यश, गुण, लीला आदि के प्रति आकर्षण। शुद्ध भक्त के गुणों की संक्रामकता का अर्थ है भगवान् की दिव्य लीलाओं के प्रति शुद्ध भक्ति की रुचि उत्पन्न करना। इस दिव्य रुचि के आगे सारी भौतिक वस्तुओं के प्रति कुरुचि उत्पन्न हो जाती है। अत: शुद्ध भक्त कभी भी भौतिक कार्यकलापों के प्रति आकर्षित नहीं होता। भक्ति के पथ के सारे अवरोधों या समस्त पापों के दूर होने पर ही मनुष्य ईश्वर के प्रति आसक्त हो सकता है, उसमें दृढ़ता आ सकती है, उसमें पूर्ण रुचि उत्पन्न हो सकती है, उसमें दिव्य अनुभूतियाँ आ सकती हैं और अन्त में वह भगवान् की प्रेममय सेवा के घरातल पर स्थित हो सकता है। ये सारी अवस्थाएँ शुद्ध भक्तों की संगति से ही विकसित होती हैं और यही इस श्लोक का तात्पर्य है।
 
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