तत्र—वहाँ; अनु—प्रतिदिन; अहम्—मैं; कृष्ण-कथा:—कृष्ण के कार्यकलापों का वर्णन; प्रगायताम्—गायन करते हुए; अनुग्रहेण—अहैतुकी कृपावश; अशृणवम्—सुनते हुए; मन:-हरा:—आकर्षक; ता:—वे; श्रद्धया—आदरपूर्वक; मे—मेरा; अनुपदम्—प्रत्येक पग पर; विशृण्वत:—ध्यान से सुनते हुए; प्रियश्रवसि—भगवान् का; अङ्ग—हे व्यासदेव; मम—मेरा; अभवत्—ऐसी बन गई; रुचि:—प्रवृत्ति ।.
अनुवाद
हे व्यासदेव, उस संगति में तथा उन महान् वेदान्तियों की कृपा से, मैं उनके द्वारा भगवान् कृष्ण की मनोहर लीलाओं का वर्णन सुन सका और इस प्रकार ध्यानपूर्वक सुनते रहने से भगवान् के विषय में प्रतिक्षण अधिकाधिक सुनने के प्रति मेरी रुचि बढ़तीही गई।
तात्पर्य
परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण न केवल अपने व्यक्तिगत लक्षणों के कारण आकर्षक हैं, अपितु अपने दिव्य कार्यकलापों के कारण भी हैं। इसका कारण यह है कि वे परम पुरुष अपने नाम, यश, रूप, लीलाओं, पार्षदों, साज-सामग्री इत्यादि के कारण निरपेक्ष अवस्था में हैं। भगवान् अपनी अहैतुकी कृपावश इस भौतिक जगत में अवतरित होते हैं और मनुष्य रूप में अपनी विविध दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं, जिससे सब मनुष्य उनके प्रति आकृष्ट होकर भगवद्धाम वापस जा सकें। मनुष्य स्वभाव से लौकिक कार्यकलाप करने वाले विभिन्न पुरुषों के इतिहास तथा उनकी कथाएँ सुनने का इच्छुक रहता है, किन्तु उसे इसका ज्ञान नहीं रहता कि ऐसी संगति मात्र समय का अपव्यय है और इससे वह प्रकृति के तीनों गुणों से आसक्त होता जाता है। समय गँवाने की अपेक्षा भगवान् की दिव्य लीलाओं के प्रति ध्यान देने से उसे आध्यात्मिक लाभ हो सकता है। भगवान् की लीलाओं की कथा सुनने से उसे भगवान् का प्रत्यक्ष सान्निध्य प्राप्त होता है और जैसाकि पहले कहा जा चुका है, भगवान् के विषय में श्रवण करने से अन्त:करण के सारे पाप धुल जाते हैं। इस प्रकार से पापों के धुल जाने पर श्रोता धीरे-धीरे सांसारिक संगति से मुक्त होकर भगवान् के स्वरूप के प्रति आकृष्ट होता है। नारद मुनि ने अपने निजी अनुभव के आधार पर ही इसकी व्याख्या की है। कहने का आशय यह है कि भगवान् की लीलाओं के श्रवण मात्र से मनुष्य भगवान् का पार्षद बन सकता है। नारद मुनि का जीवन शाश्वत है, उनका ज्ञान असीम तथा आनन्द अगाध है और वे बिना किसी बाधा के भौतिक तथा आध्यात्मिक जगतों में विचरण कर सकते हैं। मनुष्य सही व्यक्ति से भगवान् की दिव्य लीलाओं का श्रवण करके ही जीवन की परम पूर्णता प्राप्त कर सकता है, जिस प्रकार श्री नारद ने अपने पूर्वजन्म में शुद्ध भक्तों (भक्तिवेदान्तों) से सुनकर प्राप्त की। भक्तों की संगति में रह कर श्रवण करने की यह विधि इस कलह-प्रधान (कलि) युग के लिए विशेष रूप से संस्तुत की गई है।
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