श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  1.5.27 
तस्मिंस्तदा लब्धरुचेर्महामते
प्रियश्रवस्यस्खलिता मतिर्मम ।
ययाहमेतत्सदसत्स्वमायया
पश्ये मयि ब्रह्मणि कल्पितं परे ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—ऐसा होने पर; तदा—उस समय; लब्ध—प्राप्त; रुचे:—रुचि; महा-मते—हे महामुनि; प्रियश्रवसि—भगवान् पर; अस्खलिता मति:—अनवरत ध्यान; मम—मेरा; यया—जिससे; अहम्—मैं; एतत्—ये सब; सत्-असत्—स्थूल तथा सूक्ष्म; स्व-मायया—अपने ही अज्ञान से; पश्ये—देखता हूँ; मयि—मुझमें; ब्रह्मणि—सर्वोपरि; कल्पितम्—स्वीकार किया जाता है; परे—अध्यात्म में ।.
 
अनुवाद
 
 हे महामुनि, ज्योंही मुझे भगवान् का आस्वाद प्राप्त हुआ, त्योंही मेरा ध्यान भगवान् का श्रवण करने के प्रति अटल हो गया। और ज्योंही मेरी रुचि विकसित हो गई, त्योंही मुझे अनुभव हुआ कि मैंने अज्ञानतावश ही स्थूल तथा सूक्ष्म आवरणों को स्वीकार किया है, क्योंकि भगवान् तथा मैं दोनों ही दिव्य हैं।
 
तात्पर्य
 भौतिक जगत में अज्ञानता की तुलना अंधकार से की जाती है और समस्त वैदिक साहित्य में भगवान् की तुलना सूर्य से की गई है। जहाँ कहीं प्रकाश होता है, वहाँ अंधकार नहीं रह पाता। भगवान् की लीलाओं का श्रवण स्वयं ही भगवान् की दिव्य संगति है, क्योंकि भगवान् तथा उनकी लीलाओं में कोई अन्तर नहीं होता। परम प्रकाश की संगति प्राप्त करने का अर्थ होगा सारे अज्ञान को भगाना। केवल अज्ञानवश ही बद्ध जीव झूठे ही यह सोचता है कि वह तथा भगवान् दोनों ही भौतिक प्रकृति से उत्पन्न हैं। लेकिन वास्तव में भगवान् तथा जीव दोनों दिव्य हैं और उन्हें भौतिक प्रकृति से कुछ लेना-देना नहीं होता। जब अज्ञान दूर हो जाता है और यह अनुभव किया जाता है कि भगवान् के बिना किसी भी चीज का अस्तित्व नहीं है, तब अविद्या हट जाती है। चूँकि स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर भगवान् से ही उद्भूत हैं, अतएव प्रकाश का ज्ञान होते ही इन दोनों शरीरों को भगवान् की सेवा में प्रवृत्त किया जा सकता है। स्थूल शरीर को भगवान् की सेवा करनें में (यथा जल लाने, मन्दिर बुहारने या नमस्कार करने आदि में) लगाना चाहिए। अर्चना में अर्थात् मन्दिर में भगवान् की पूजा करने में इस स्थूल शरीर का उपयोग भगवान् की सेवा करने में होता है। इसी प्रकार, सूक्ष्म मन को भगवान् की दिव्य लीलाओं के श्रवण, उनके चिन्तन, भगवान् के नाम के कीर्तन में लगाना चाहिए आदि। ऐसे सारे कार्य दिव्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी भी कार्य में स्थूल या सूक्ष्म इन्द्रियों को प्रवृत्त नहीं करना चाहिए। दिव्य कार्यों की ऐसी अनुभूति अनेकानेक वर्षों तक भक्ति में रहकर सेवा करने से प्राप्त हो पाती है, लेकिन श्रवण के द्वारा नारद मुनि में जिस प्रकार से भगवान् के प्रति प्रेमाकर्षण उत्पन्न हुआ, वह अत्यन्त प्रभावशाली होता है।
 
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