तस्यैवं मेऽनुरक्तस्य प्रश्रितस्य हतैनस: ।
श्रद्दधानस्य बालस्य दान्तस्यानुचरस्य च ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
तस्य—उसका; एवम्—इस प्रकार; मे—मेरा; अनुरक्तस्य—उनसे आसक्त; प्रश्रितस्य—आज्ञाकारी का; हत—मुक्त; एनस:—पापों से; श्रद्दधानस्य—श्रद्धावान; बालस्य—बालक का; दान्तस्य—संयमी का; अनुचरस्य—उपदेशों का दृढ़ता से पालन करने वाले का; च—तथा ।.
अनुवाद
मैं उन मुनियों के प्रति अत्यधिक आसक्त था। मेरा आचरण विनम्र था और उनकी सेवा के कारण मेरे सारे पाप विनष्ट हो चुके थे। मेरे हृदय में उनके प्रति प्रबल श्रद्धा थी। मैंने इन्द्रियों को वश में कर लिया था और मैं तन तथा मन से उनका दृढ़ता से अनुगमन करता रहा था।
तात्पर्य
शुद्ध भक्त के पद तक उन्नत होने के इच्छुक व्यक्ति के लिए ये ही आवश्यक योग्यताएँ हैं। ऐसे व्यक्ति को सदैव शुद्ध भक्तों के सान्निध्य की खोज करनी चाहिए। उसे छद्म भक्त से गुमराह नहीं हो जाना चाहिए। स्वयं उसे भी शुद्ध भक्त से उपदेश ग्रहण करने के लिए सरल तथा विनम्र होना चाहिए। शुद्ध भक्त पूर्ण रूप से भगवान् की शरण में रहता है। वह भगवान् को ही परम स्वामी तथा अन्यों को उनके सेवक रूप में जानता है। केवल शुद्ध भक्तों की संगति से ही लौकिक संगति से संचित होने वाले समग्र पापों से छूटा जा सकता है। नवदीक्षित भक्त को शुद्ध भक्त की श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए। उसे अत्यन्त आज्ञाकारी होना चाहिए और उपदेशों का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। ये लक्षण हैं उस भक्त के जो इसी जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है।
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