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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.5.32 
एतत्संसूचितं ब्रह्मंस्तापत्रयचिकित्सितम् ।
यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—इतना; संसूचितम्—विद्वानों द्वारा निर्धारित; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण व्यास; ताप-त्रय—तीन प्रकार के ताप (कष्ट) ; चिकित्सितम्—उपचार, औषधि; यत्—जो; ईश्वरे—परम नियामक; भगवति—भगवान् में; कर्म—नियत कार्य; ब्रह्मणि—ब्रह्म में; भावितम्—समर्पित ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्राह्मण व्यासदेव, विद्वानों द्वारा यह निश्चित हुआ है कि समस्त कष्टों तथा दुखों के उपचार का सर्वोत्तम उपाय यह है कि अपने सारे कर्मों को भगवान् (श्रीकृष्ण) की सेवा में समर्पित कर दिया जाय।
 
तात्पर्य
 श्री नारद मुनि ने स्वयं यह अनुभव किया कि मोक्ष का मार्ग खोलने या जीवन के समस्त कष्टों से छूट पाने के लिए, सबसे सहज तथा व्यावहारिक उपाय यह है कि सही तथा प्रामाणिक स्रोत से भगवान् की दिव्य लीलाओं का विनीत भाव से श्रवण किया जाय। यही उपचार की एकमात्र औषधि विधि है। यह सारा भौतिक जगत कष्टों से भरा है। मूर्ख लोगों ने अपने क्षुद्र मस्तिष्कों के बल पर शरीर तथा मन से सम्बन्धित एवं अन्य जीवों के सन्दर्भ में प्राकृतिक विपदाओं से सम्बन्धित तीन प्रकार के कष्टों को दूर करने के अनेक उपचार ढँूढ निकाले हैं। सारा संसार इन कष्टों से उबरने के लिए कठिन संघर्ष कर रहा है, किन्तु लोग यह नहीं जानते कि भगवान् की अनुमति के बिना न तो किसी योजना से, न ही किसी उपचार विधि से वांछित शान्ति एवं उपशमन लाया जा सकता है। यदि भगवान् की स्वीकृति न हो तो औषधि उपचार द्वारा रोगी को स्वस्थ करने का प्रयास व्यर्थ होगा। यदि भगवान् की स्वीकृति न हो तो नदी या समुद्र को नाव द्वारा पार करना कोई उपचार नहीं है। हमें यह निश्चित रूप से ज्ञात होना चाहिए कि भगवान् ही परम स्वीकृति-दाता हैं, अतएव अन्तिम सफलता के लिए या सफलता के मार्ग के अवरोधों से मुक्ति पाने के लिए हमें अपने सारे प्रयास भगवान् को समर्पित कर देने चाहिए। भगवान् सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ हैं। वे समस्त अच्छे या बुरे फलों के चरम स्वीकृतिदाता हैं। अतएव हमें चाहिए कि हम अपने सारे कर्म भगवान् की कृपा को समर्पित करें और उन्हें ही निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा या पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् के रूप में स्वीकारें। फिर चाहे हम जो भी हों, हमें प्रत्येक वस्तु भगवान् की सेवा में समर्पित करनी चाहिए। यदि कोई विद्वान, विज्ञानी, दार्शनिक, कवि इत्यादि है, तो उसे चाहिए कि भगवान् की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए अपने ज्ञानका उपयोग करे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगवान् की शक्ति का अध्ययन करने का प्रयास करो। न तो उनका बहिष्कार करो और न ही अल्प ज्ञान संग्रह करके उनके समान बनने या उनका स्थान ग्रहण करने का प्रयास करो। यदि कोई प्रशासक, राजनीतिज्ञ, योद्धा इत्यादि है, तो उसे चाहिए कि राजधर्मिता में भगवान् की सर्वश्रेष्ठता स्थापित करने का यत्न करे। उसे चाहिए कि श्री अर्जुन की भाँति भगवान् के लिए युद्ध करे। प्रारम्भ में, महान योद्धा श्री अर्जुन ने युद्ध करने से इनकार कर दिया था, किन्तु जब भगवान् ने उसे विश्वास दिलाया कि युद्ध करना आवश्यक है, तो उसने अपना इरादा बदल दिया और भगवान् के लिए युद्ध किया। इसी प्रकार यदि कोई व्यापारी है, उद्योगपति है या किसान है, तो उसे चाहिए कि अपनी गाढ़ी कमाई का खर्च भगवान् के लिए करे। सदैव यही सोचना चाहिए कि जितना भी संचित धन है, वह भगवान् की सम्पदा है। सम्पदा को भाग्य की देवी (लक्ष्मी) माना जाता है और भगवान् तो नारायण या लक्ष्मीपति हैं। अतएव लक्ष्मी को भगवान् नारायण की सेवा में लगाने का प्रयत्न करो और सुखी बनो। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भगवान् की अनुभूति करने का यही रास्ता है। अन्तत:, सर्वोत्तम बात तो यह होगी कि समस्त भौतिक कार्यों से छुटकारा पाकर अपने आपको भगवान् की दिव्य लीलाओं के श्रवण में लगाया जाय। किन्तु ऐसा अवसर प्राप्त न होने पर मनुष्य को चाहिए कि वह जिन-जिन वस्तुओं के प्रति आकर्षित है, उन्हें वह भगवान् की सेवा में लगाने का प्रयास करे। शान्ति तथा सम्पन्नता का यही मार्ग है। इस श्लोक में संसूचितम् शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। किसी को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि नारद की अनुभूति बाल-कल्पना मात्र थी। ऐसा नहीं है। इसकी अनुभूति कुशल तथा प्रकांड विद्वानों ने की है और संसूचितम् शब्द का यही असली आशय है।
 
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