श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  1.5.34 
एवं नृणां क्रियायोगा: सर्वे संसृतिहेतव: ।
त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिता: परे ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; नृणाम्—मनुष्यों के; क्रिया-योगा:—सारे कार्यकलाप; सर्वे—सब कुछ; संसृति—भौतिक अस्तित्व; हेतव:—कारण; ते—वे; एव—निश्चय ही; आत्म—कार्य रूपी वृक्ष; विनाशाय—नष्ट करने के लिए; कल्पन्ते—सक्षम होते हैं; कल्पिता:—समर्पित; परे—परमेश्वर में ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार जब मनुष्य के सारे कार्यकलाप भगवान् की सेवा में समर्पित होते हैं, तो वही सारे कर्म जो उसके शाश्वत बन्धन के कारण होते हैं, कर्म रूपी वृक्ष के विनाशकर्ता बन जाते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में जीवों को निरन्तर व्यस्त रखने वाले सकाम कर्म की तुलना वटवृक्ष (अश्वत्थ) से की गई है, क्योंकि इसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। जब तक कर्म के फल का भोग करने की इच्छा रहती है, तब तक कर्म के अनुसार आत्मा का देहान्तरण एक शरीर से दूसरे में, एक स्थान से दूसरे स्थान में होता रहता है। यही भोगेच्छा भगवान् की सेवा करने की इच्छा में बदली जा सकती है। ऐसा करने से मनुष्य का कार्य कर्मयोग में अथवा उस मार्ग में बदल जाता है, जिससे मनुष्य अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार कर्म करते हुए आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर सकता है। यहाँ पर आत्मा शब्द समस्त सकाम कर्म की कोटियों का सूचक है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जब समस्त सकाम तथा अन्य कर्मों को भगवान् की सेवा में लगा दिया जाता है, तब फिर नये कर्म उत्पन्न नहीं होते और धीरे-धीरे दिव्य भक्तिमय सेवा का विकास होता है, जिससे न केवल कर्म रूपी अश्वत्थ वृक्ष का पूर्ण रूप से मूलोच्छेद होगा, अपितु वह कर्ता को भगवान् के चरणकमलों तक ले जाएगी।

सारांश यह है कि मनुष्य को सर्वप्रथम ऐसे शुद्ध भक्तों की संगति खोजनी होती है, जो न केवल वेदान्त के पण्डित हों, अपितु स्वरूपसिद्ध तथा भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हों। इस संगति में नवदीक्षित भक्तों को चाहिए कि बिना भेदभाव के तन तथा मन से प्रेमपूर्ण सेवा करें। इस सेवा-वृत्ति से प्रेरित होकर महापुरुष अपनी कृपा प्रदान करने के लिए अधिक इच्छुक होंगे, जिससे नवदीक्षित भक्त में शुद्ध भक्तों के दिव्य गुणों का समावेश हो सकेगा। धीरे-धीरे इससे भगवान् की दिव्य लीलाओं के श्रवण के प्रति प्रगाढ़ रुचि उत्पन्न हो सकेगी, जिससे वह स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों की स्वाभाविक स्थिति तथा उससे भी परे शुद्ध आत्मा तथा परमात्मा के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त कर सकेगा। शाश्वत सम्बन्ध की स्थापना के जुड़ जाने के बाद धीरे-धीरे भगवान् की शुद्ध भक्ति विकसित होकर भगवान् के पूर्ण ज्ञान का रूप धारण कर लेती है, जो निर्गुण ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा की परिधि के बाहर है। ऐसे पुरुषोत्तम योग से, जिसका भगवद्गीता में उल्लेख है, मनुष्य इसी शरीर में परिपूर्ण बन जाता है और उसमें सर्वोच्च मात्रा में भगवान् के उत्तम गुण दिखने लगते हैं। शुद्ध भक्तों की संगति से ऐसा ही क्रमिक विकास होता है।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥