यत्—जो भी; अत्र—इस जीवन या जगत में; क्रियते—करता है; कर्म—कार्य; भगवत्—भगवान् की; परितोषणम्— तुष्टि हेतु; ज्ञानम्—ज्ञान; यत् तत्—जो इस तरह कहलाता है; अधीनम्—आश्रित; हि—निश्चय ही; भक्ति-योग—भक्ति सम्बन्धी; समन्वितम्—भक्तियोग से युक्त ।.
अनुवाद
इस जीवन में भगवान् की तुष्टि के लिए जो भी कार्य किया जाता है, उसे भक्तियोग अथवा भगवान् के प्रति दिव्य प्रेमा भक्ति कहते हैं और जिसे ज्ञान कहते हैं, वह तो सहगामी कारक बन जाता है।
तात्पर्य
आम तौर पर लोकप्रियधारणा यह है कि शास्त्रानुमोदित विधि से सकाम कर्म करने से मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के लिए दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बन जाता है। कुछ लोग भक्तियोग को कर्म का दूसरा रूप मानते हैं। लेकिन वस्तुत: भक्तियोग कर्म तथा ज्ञान दोनों ही से ऊपर है। भक्तियोग ज्ञान या कर्म से स्वतन्त्र है, जबकि ज्ञान तथा कर्म भक्तियोग के आश्रित हैं। यह क्रियायोग या कर्मयोग, जिसकी संस्तुति नारद ने व्यास के लिए की है, विशेष रूप से संस्तुत हुआ है, क्योंकि मूल सिद्धान्त तो भगवान् को प्रसन्न करना है। भगवान् नहीं चाहते कि उनके पुत्र रूप सारे जीव, जीवन के त्रिविध तापों से पीडि़त रहें। वे चाहते रहते हैं कि वे सब उनके पास आकर साथ-साथ रहें, लेकिन भगवान् के धाम वापस जाने का अर्थ यह है कि मनुष्य अपने को सांसारिक कल्मषों से शुद्ध कर ले। अत: जब भगवान् को तुष्ट करने के लिए कर्म किया जाता है, तो कर्ता धीरे-धीरे भौतिक कल्मष से शुद्ध होता रहता है। इस शुद्धिकरण का अर्थ है, आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति। अतएव ज्ञान भगवान् के लिए किये गये कर्म पर आश्रित है। भक्तियोग या भगवान् की तुष्टि से विहीन अन्य ज्ञान, किसी को भगवद्धाम नहीं पहुँचा सकता जिसका अर्थ यह हुआ कि वह मोक्ष भी नहीं दिला सकता, जैसा कि नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितम् श्लोक में व्याख्या की जा चुकी है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि जो भक्त भगवान् की अनन्य सेवा में, विशेष रूप से भगवान् की दिव्य महिमा के श्रवण तथा कीर्तन में लगा रहता है, वह दैवी कृपा से साथ ही साथ आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त करता रहता है जिसकी पुष्टि भगवद्गीता में की गई है।
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