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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  1.5.40 
त्वमप्यदभ्रश्रुत विश्रुतं विभो:
समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् ।
प्राख्याहि दु:खैर्मुहुरर्दितात्मनां
सङ्‍क्लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्यथा ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
त्वम्—तुम; अपि—भी; अदभ्र—विशाल; श्रुत—वैदिक साहित्य; विश्रुतम्—सुना हुआ; विभो:—सर्वशक्तिमान का; समाप्यते—सन्तुष्ट; येन—जिससे; विदाम्—विद्वान का; बुभुत्सितम्—दिव्य ज्ञान सीखने के इच्छुक को; प्राख्याहि— वर्णन करो; दु:खै:—दुखों से; मुहु:—सदैव; अर्दित-आत्मनाम्—पीडि़त जनसमूह को; सङ्क्लेश—कष्ट को; निर्वाणम्—शमन; उशन्ति न—नहीं निकल पाते; अन्यथा—अन्य साधनों से ।.
 
अनुवाद
 
 अत: कृपा करके सर्वशक्तिमान के उन कार्यकलापों का वर्णन करो, जिसे तुमने वेदों के अपार ज्ञान से जाना है, क्योंकि उससे महान् विद्वज्जनों की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति होगी और साथ ही सामान्य लोगों के कष्टों का भी शमन होगा, जो भौतिक दुखों से सदैव पीडि़त रहते हैं। निस्सन्देह, इन कष्टों से उबरने का कोई अन्य साधन नहीं है।
 
तात्पर्य
 श्री नारद मुनि अपने व्यावहारिक अनुभव से निश्चित रूप से प्रमाणित करते हैं कि भौतिक कर्म की सारी समस्याओं का मूल समाधान परमेश्वर की दिव्य महिमा को दूर-दूर तक प्रसारित करने में है। सज्जनों की चार श्रेणियाँ होती हैं और दुर्जनों की भी इतनी ही श्रेणियाँ हैं। चारों श्रेणियों के सज्जन सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता को तब स्वीकार करते हैं (१) जब वे विापत्ति में पड़ते हैं, (२) जब उन्हें धन की आवश्यकता होती है, (३) जब वे ज्ञान में बढ़ जाते हैं तथा (४) जब वे ईश्वर के विषय में अधिकाधिक जानना चाहते हैं। वे अन्त:प्रेरणावश भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं। इस प्रकार नारद जी व्यासदेव को उपदेश देते हैं कि वे भगवान् के दिव्य ज्ञान का प्रसार उस विशाल वैदिक ज्ञान के संन्दर्भ में करें जिन्हें उन्होंने पहले से प्राप्त कर रखा है।

जहाँ तक दुर्जनों का सम्बन्ध है, उनकी भी चार श्रेणियाँ हैं—(१) वे जो सहज रुप से प्रगतिशील सकाम कर्म के प्रति आसक्त हैं और इस तरह उसके साथ जुड़े हुए अनेक कष्टों को भोगते रहते हैं, (२) वे जो इन्द्रियतुष्टि के गर्हित कार्य में लगे रहते हैं और इस तरह परिणाम को भोगते हैं, (३) वे जो भौतिक रूप से ज्ञान में तो अत्यन्त समृद्ध हैं, लेकिन सर्वशक्तिमान भगवान् की सत्ता को स्वीकार करने की मति न होने के कारण कष्ट पाते हैं; तथा (४) वे लोग जो नास्तिक कहलाते हैं, और जान-बूझकर भगवान् के नाम से ही घृणा करते हैं, भले ही वे सदा संकट में क्यों न रहें।

श्री नारद जी ने व्यासदेव को समझाया कि वे सज्जन तथा दुर्जन आठों प्रकार के सारे लोगों का कल्याण करने के लिए भगवान् की महिमा का वर्णन करें। अतएव श्रीमद्भागवत किन्हीं विशेष श्रेणी या सम्प्रदाय के लोगों के निमित्त नहीं है। यह तो उस सत्यनिष्ठ व्यक्ति के लिए है, जो सचमुच अपने कल्याण तथा मन की शान्ति का इच्छुक है।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के अन्तर्गत “नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत का उपदेश” नामक पंचम अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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