श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  1.5.5 
व्यास उवाच
अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं
तथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं
पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम् ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
व्यास:—व्यास ने; उवाच—कहा; अस्ति—है; एव—निश्चय ही; मे—मेरा; सर्वम्—समस्त; इदम्—यह; त्वया—आपके द्वारा; उक्तम्—कहा गया; तथापि—फिर भी; न—नहीं; आत्मा—आत्मा; परितुष्यते—संतुष्ट करता है; मे—मुझको; तत्—जिसका; मूलम्—जड़; अव्यक्तम्—अदृश्य; अगाध-बोधम्—अगाध ज्ञान वाला मनुष्य; पृच्छामहे—पूछता हूँ; त्वा—आपसे; आत्म-भव—स्वत: उत्पन्न; आत्म-भूतम्—सन्तान ।.
 
अनुवाद
 
 श्री व्यासदेव ने कहा : आपने मेरे विषय में जो कुछ कहा, वह सब सही है। इन सब के बावजूद मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अतएव मैं आपसे अपने असंतोष के मूल कारण के विषय में पूछ रहा हूँ, क्योंकि आप स्वयंभू (बिना भौतिक माता पिता के उत्पन्न ब्रह्मा) की सन्तान होने के कारण अगाध ज्ञान से युक्त व्यक्ति हैं।
 
तात्पर्य
 भौतिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति शरीर या मन की पहचान आत्मा के साथ करता है। इस तरह इस भौतिक जगत का सारा ज्ञान या तो शरीर से या मन से सम्बन्धित होता है और यही समस्त विषादों का मूल कारण है। इसका सदा ही पता नहीं चल पाता, भले ही कोई भौतिकतावादी ज्ञान का कितना ही बड़ा पंडित क्यों न हो। अत: ऐसे विषादों के मूल कारण के निराकरण के लिए नारद जैसे पुरुष के पास पहुँचना अच्छा रहता है। नारद के पास क्यों जाया जाय, इसकी व्याख्या आगे की गई है।
 
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