श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  1.5.8 
श्रीनारद उवाच
भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् ।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम् ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-नारद: उवाच—श्री नारद ने कहा; भवता—तुम्हारे द्वारा; अनुदित-प्रायम्—प्राय: अप्रशंसित; यश:—महिमा; भगवत:—भगवान् की; अमलम्—निष्कलंक, निर्मल; येन—जिससे; एव—निश्चय ही; असौ—वे (भगवान्); न— नहीं; तुष्येत—प्रसन्न होता; मन्ये—मैं सोचता हूँ; तत्—उस; दर्शनम्—दर्शन को; खिलम्—निम्न ।.
 
अनुवाद
 
 श्री नारद ने कहा : वास्तव में तुमने भगवान् की अलौकिक तथा निर्मल महिमा का प्रसार नहीं किया। जो दर्शन (शास्त्र) परमेश्वर की दिव्य इन्द्रियों को तुष्ट नहीं कर पाता, वह व्यर्थ समझा जाता है।
 
तात्पर्य
 परमात्मा के साथ व्यक्तिगत जीव का वैधानिक सम्बन्ध उस शाश्वत स्वामी के नित्य दास होने का है। भगवान् ने जीवों के रूप में अपना विस्तार इसीलिए किया है कि उन्हें उनसे प्रेमपूर्ण सेवा प्राप्त हो सके और इसीसे भगवान् तथा जीव दोनों को सन्तोष प्राप्त हो सकता है।

वेदव्यास जैसे विद्वान ने वैदिक साहित्य में अनेक विस्तार किये, जिनका अन्त वेदान्त दर्शन में होता है, किन्तु इनमें से किसी में भी भगवान् की महिमा का प्रत्यक्ष गान नहीं हुआ था। शुष्क दार्शनिक चिन्तन ब्रह्म जैसे दिव्य विषय से सम्बन्धित होकर भी भगवान् की महिमा के प्रत्यक्ष गुण गान के बिना तनिक भी आकर्षक नहीं होता। दिव्य अनुभूति के लिए भगवान् अन्तिम शब्द हैं। निराकार ब्रह्म या अन्तर्यामी परमात्मा के रूप में परम की अनुभूति उतना दिव्य आनन्द प्रदान करने वाली नहीं होती, जितनी कि उनकी महिमा की साक्षात् अनुभूति होती है।

वेदान्त दर्शन के संकलनकर्ता स्वयं व्यासदेव हैं। किन्तु इसके रचयिता होते हुए भी वे विचलित हैं। अतएव उस वेदान्त के पाठक तथा श्रोता उससे कौन-सा दिव्य आनन्द प्राप्त कर सकेंगे, जिसकी प्रत्यक्ष व्याख्या व्यासदेव ने की ही नहीं? यहीं पर आवश्यकता प्रतीत हुई कि रचनाकार वेदान्त-सूत्र की व्याख्या श्रीमद्भागवत के रूप में करे।

 
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