यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिता: ।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णित: ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
यथा—जिस प्रकार; धर्म-आदय:—धार्मिक आचरण के चारों नियम; च—तथा; अर्था:—प्रयोजन; मुनि-वर्य—मुनियों में श्रेष्ठ, तुम्हारे द्वारा; अनुकीर्तिता:—बारम्बार वर्णित; न—नहीं; तथा—उसी प्रकार; वासुदेवस्य—भगवान् श्रीकृष्ण का; महिमा—यश; हि—निश्चय ही; अनुवर्णित:—इस प्रकार से निरन्तर वर्णित ।.
अनुवाद
हे महामुनि, यद्यपि आपने धार्मिक कृत्य इत्यादि चार पुरुषार्थों का विस्तार से वर्णन किया है, किन्तु आपने भगवान् वासुदेव की महिमा का वर्णन नहीं किया है।
तात्पर्य
श्री नारद द्वारा किया गया निदान तुरन्त घोषित कर दिया जाता है। व्यासदेव के विषाद का मूल कारण उनके द्वारा पुराणों के विविध संस्करणों में जान बूझकर भगवान् की महिमा के वर्णन की उपेक्षा करना थी। यद्यपि उन्होंने सामान्य ढंग से भगवान् (श्रीकृष्ण) की महिमा का वर्णन किया है, किन्तु उतना नहीं जितना कि धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का वर्णन किया है। ये चारों पुरुषार्थ भगवान् की भक्ति की तुलना में अत्यन्त निकृष्ट हैं। प्रामाणिक विद्वान होने के कारण, श्री व्यासदेव इस अन्तर को भलीभाँति जानते थे। फिर भी इस उत्तम कार्य अर्थात् भक्तिमय सेवा को अधिक महत्त्व प्रदान न करके उन्होंने अपने बहुमूल्य समय का लगभग दुरुपयोग किया था, जिसके कारण वे विषादग्रस्त थे। इससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि भगवान् की भक्ति में लगे बिना कोई भी अधिक प्रसन्न नहीं रह सकता। भगवद्गीता में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख हुआ है।
धर्म आदि पुरुषार्थों की शृंखला में मुक्ति अन्तिम पुरुषार्थ है, जिसके बाद मनुष्य शुद्ध भक्तिमय सेवा में प्रवृत्त होता है। यह आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है। इस ब्रह्मभूत अवस्था को प्राप्त करने के बाद मनुष्य सन्तुष्ट हो जाता है। किन्तु यह तुष्टि दिव्य आनन्द की शुरुआत है। मनुष्य को इस सापेक्ष संसार में निरपेक्षता तथा समता प्राप्त करके प्रगति करनी चाहिए। इस समदर्शी अवस्था को पार करके वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में स्थिर हो जाता है। भगवद्गीता में भगवान् का यही उपदेश है। निष्कर्ष यह है कि ब्रह्मभूत अवस्था बनाये रखने तथा दिव्य अनुभूति की मात्रा को बढ़ाने के लिए नारद ने व्यासदेव को प्रोत्साहित किया कि वे भक्तिमार्ग का उत्सुकतापूर्वक बारम्बार वर्णन करें। इससे उनका सारा विषाद मिट जाएगा।
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