श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  1.6.14 
परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षित: ।
स्‍नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रम: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
परिश्रान्त—थका हुआ; इन्द्रिय—शरीर से; आत्मा—मन से; अहम्—मैं; तृट्-परीत:—प्यासा होकर; बुभुक्षित:—तथा भूखा; स्नात्वा—नहा कर; पीत्वा—तथा जल पीकर; ह्रदे—सरोवर में; नद्या:—नदी के; उपस्पृष्ट:—सम्पर्क में रह कर; गत—छुटकारा प्राप्त किया; श्रम:—थकान से ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार विचरण करते हुए, मैं तन तथा मन से थक गया और प्यासा तथा भूखा भी था। अतएव मैंने एक सरोवर में स्नान किया और जल भी पिया। जल-स्पर्श से मेरी थकान जाती रही।
 
तात्पर्य
 परिव्राजक को प्यास तथा भूख जैसी शरीर की आवश्यकताओं को, गृहस्थों के द्वार पर भिक्षाटन करके नहीं, अपितु प्रकृति के उपहारों से पूरा करना चाहिए। अत: परिव्राजक गृहस्थ के घर भिक्षाटन के लिए नहीं, अपितु उसे आध्यात्मिक आलोक प्रदान करने के लिए जाता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥