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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  1.6.15 
तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आश्रित: ।
आत्मनात्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उस; निर्मनुजे—वीरान; अरण्ये—वन में; पिप्पल—पीपल के वृक्ष के; उपस्थे—नीचे बैठ कर; आश्रित:— सहारा लेकर; आत्मना—बुद्धि से; आत्मानम्—परमात्मा को; आत्म-स्थम्—अपने में ही लीन; यथा-श्रुतम्—जैसा मैंने मुक्त पुरुषों से सुन रखा था; अचिन्तयम्—विचार करने लगा ।.
 
अनुवाद
 
 उसके पश्चात् उस वीरान जंगल में एक पीपल वृक्ष की छाया में बैठकर मैं अपनी बुद्धि से अपने अन्त:करण में स्थित परमात्मा का वैसे ही ध्यान करने लगा, जिस प्रकार कि मैंने मुक्तात्माओं से सीखा था।
 
तात्पर्य
 मनुष्य को अपनी निजी सनक के अनुसार ध्यान नहीं करना चाहिए। उसे प्रामाणिक गुरु के पारदर्शी माध्यम से, शास्त्रों के प्रमाण से, तथा प्रत्येक हृदय में वास करने वाले परमात्मा के चिन्तन में प्रशिक्षित अपनी बुद्धि के सही प्रयोग से भलीभाँति जानना चाहिए। यह चेतना उन भक्तों में भलीभाँति विकसित होती है, जो अपने गुरु के आदेशों के अनुसार भगवान् की प्रेममय सेवा करते हैं। श्री नारद जी ने प्रामाणिक गुरुओं से सम्पर्क किया था, उनकी निष्ठापूर्वक सेवा की थी और उनसे समुचित आलोक प्राप्त किया था। इस प्रकार से वे ध्यान करने बैठ गये।
 
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