रूपम्—रूप; भगवत:—भगवान् का; यत्—जैसा है; तत्—वह; मन:—मन की; कान्तम्—इच्छानुसार; शुच- अपहम्—समस्त विषमता को दूर करते हुए; अपश्यन्—बिना देखे; सहसा—अचानक; उत्तस्थे—खड़ा हो गया; वैक्लव्यात्—विकल होकर; दुर्मना:—इष्ट को खोकर; इव—मानो ।.
अनुवाद
भगवान् का दिव्य रूप, जैसा कि वह है, मन की इच्छा को पूरा करता है और समस्त मानसिक सन्तापों को तुरन्त दूर करने वाला है। अत: उस रूप के खो जाने पर मैं व्याकुल होकर उठ खड़ा हुआ, जैसा कि प्राय: अपने अभीष्ट के खो जाने पर होता है।
तात्पर्य
नारद मुनि ने अनुभव किया कि भगवान् रूप-विहीन नहीं हैं। लेकिन उनका रूप हमारे भौतिक अनुभव के सभी रूपों से सर्वथा भिन्न होता है। हम जीवन भर इस भौतिक जगत में विभिन्न रूप देखते रहते हैं, लेकिन इनमें से किसी एक से भी न तो मन की तुष्टि होती है, न उनमें से एक भी हमारे मन की अशान्ति को दूर कर सकता है। भगवान् के दिव्य रूप की ये ही विशेषताएँ हैं और जिसने उस रूप को एक बार भी देखा है, वह अन्य किसी वस्तु से तुष्ट नहीं हो पाता। भौतिक जगत का कोई भी रूप दृष्टा को तुष्ट नहीं कर सकता। ‘भगवान् रूप-विहीन हैं या निराकार हैं’ इस का यही अर्थ होता है कि उनका कोई भौतिक रूप नहीं होता और वे किसी भौतिक व्यक्तित्व के समान नहीं होते।
आध्यात्मिक जीवों के रूप में भगवान् के उस दिव्य रूप से सम्बन्धित होने के कारण हम सभी जन्म-जन्मान्तर भगवान् के उसी रूप को खोजते रहते हैं और भौतिक तुष्टि के अन्य किसी रूप से संतुष्ट नहीं हो पाते। नारद मुनि को इसकी झलक मिली थी, लेकिन उसे दुबारा न देख कर वे विकल हो उठे और उसे ढूँढऩे के लिए सहसा उठ खड़े हुए। हम जन्म-जन्मान्तर जिसकी खोज करते हैं, वह नारद मुनि को मिल गया था, अतएव उसका अदृश्य होना निश्चित ही उनके लिए आघात पहुँचाने वाला था।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.