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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  1.6.19 
दिद‍ृक्षुस्तदहं भूय: प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोऽपि नापश्यमवितृप्त इवातुर: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
दिदृक्षु:—देखने को इच्छुक; तत्—वह; अहम्—मैं; भूय:—फिर; प्रणिधाय—मन को एकाग्र करके; मन:—मन; हृदि—हृदय में; वीक्षमाण:—देखने के लिए प्रतीक्षारत; अपि—होते हुए; —कभी नहीं; अपश्यम्—उन्हें देखा; अवितृप्त:—बिना संतुष्ट हुए; इव—सदृश; आतुर:—संतप्त ।.
 
अनुवाद
 
 मैंने भगवान् के उस दिव्य रूप को पुन: देखना चाहा, लेकिन अपने हृदय में एकाग्र होकर उस रूप का दर्शन करने के सारे प्रयासों के बावजूद, मैं उन्हें फिर से न देख सका। इस प्रकार असंतुष्ट होने पर मैं अत्यधिक संतप्त हो उठा।
 
तात्पर्य
 भगवान् के रूप को देखने की कोई यान्त्रिक विधि नहीं होती है। यह पूर्ण रूप से भगवान् की अहैतुकी कृपा पर निर्भर करता है। हम भगवान् से यह माँग नहीं कर सकते कि वे हमारी दृष्टि के समक्ष उपस्थित हो जाँय, ठीक वैसे ही जैसे कि सूर्य से हम यह माँग नहीं कर सकते कि वह हमारी इच्छानुसार उदय हुआ करे। सूर्य स्वेच्छा से उदय होता है, उसी तरह से भगवान् भी अपनी अहैतुकी कृपावश ही उपस्थित होते हैं। मनुष्य को चाहिए कि उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करे और भगवान् की भक्तिमय सेवा के लिए अपने नियत कर्म करता रहे। नारद मुनि ने सोचा कि वे भगवान् को पुन: उसी यान्त्रिक विधि से देख सकेंगे, जिससे वे प्रथम प्रयास में सफल हुए थे, लेकिन अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी उनका दूसरा प्रयास सफल नहीं हो पाया। भगवान् समस्त प्रकार के बन्धनों से मुक्त हैं। वे केवल अनन्य भक्ति के बन्धन से ही बाँधे जा सकते हैं। वे न तो हमारी इन्द्रियों द्वारा दृश्य हैं, न अनुभवगम्य हैं। वे जब भक्तिमय सेवा के निष्ठावान प्रयास से प्रसन्न होते हैं और जब चाहते हैं, तब स्वेच्छा से ही दिखते हैं।
 
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