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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  1.6.20 
एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गम्भीरश्लक्ष्णया वाचा शुच: प्रशमयन्निव ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; यतन्तम्—यत्न करते हुए; विजने—वह एकान्त स्थान में; माम्—मुझसे; आह—कहा; अगोचर:— भौतिक शब्द (ध्वनि) की सीमा से बाहर; गिराम्—वाणी; गम्भीर—गम्भीर; श्लक्ष्णया—सुनने में सुखद; वाचा— शब्द; शुच:—शोक; प्रशमयन्—दूर करते हुए; इव—सदृश ।.
 
अनुवाद
 
 वह एकान्त स्थान में मेरे प्रयासों को देखकर समस्त लौकिक वर्णन से परे भगवान् ने मेरे शोक को दूर करने के लिए अत्यन्त गम्भीर तथा सुखद वाणी में मुझसे कहा।
 
तात्पर्य
 वेदों में कहा गया है कि भगवान् लौकिक वाणी तथा बुद्धि की पहुँच के परे हैं। तो भी उनकी अहैतुकी कृपा होने पर मनुष्य को उनके सुनने तथा उनका कीर्तन करने के लिए उपयुक्त इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। यही भगवान् की अकल्पनीय शक्ति है। जिस पर यह कृपा प्रदान की जाती है वह उनको सुन सकता है। नारद मुनि से भगवान् अतीव प्रसन्न थे, अतएव उन्हें वह शक्ति प्राप्त हो सकी कि वे भगवान् की वाणी सुन सके। लेकिन, वैधि भक्ति की दीक्षा की प्रारम्भिक अवस्था में, उनका स्पर्श पाकर उनकी अनुभूति करना अन्य लोगों के लिए सम्भव नहीं है। यह तो नारद के लिए विशेष वरदान था। जब उन्होंने भगवान् की सुखद वाणी सुनी, तो वियोग की अनुभूति कुछ-कुछ दूर हुई। ईश्वर से प्रेम करने वाला भक्त निरन्तर उनके वियोग की व्यथा का अनुभव करता रहता है, अतएव वह नित्य ही दिव्य आनन्द में डूबा रहता है।
 
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