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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  1.6.22 
सकृद् यद्दर्शितं रूपमेतत्कामाय तेऽनघ ।
मत्काम: शनकै: साधु सर्वान्मुञ्चति हृच्छयान् ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
सकृत्—केवल एक बार; यत्—जो; दर्शितम्—दिखाया हुआ; रूपम्—रूप; एतत्—यह है; कामाय—लालसा के लिए; ते—तुम्हारा; अनघ—हे निष्पाप; मत्—मेरी; काम:—इच्छा; शनकै:—बढ़ाने से; साधु:—भक्त; सर्वान्—समस्त; मुञ्चति—त्यागता है; हृत्-शयान्—भौतिक इच्छाओंको ।.
 
अनुवाद
 
 हे निष्पाप पुरुष, तुमने मुझे केवल एक बार देखा है और यह मेरे प्रति तुम्हारी इच्छा को उत्कट बनाने के लिए है, क्योंकि तुम जितना ही अधिक मेरे लिए लालायित होगे, उतना ही तुम समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो सकोगे।
 
तात्पर्य
 जीव कभी भी इच्छाओं से रहित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मृत (जड़) पत्थर नहीं है। उसे काम करना, सोचना, अनुभव करना तथा चाहना, कुछ तो करना होता है। किन्तु जब वह भौतिक दृष्टि से सोचता, अनुभव करता तथा चाहता है, तो वह बंधन में जकड़ता जाता है, किन्तु इसके विपरीत, जब वह ईश्वर की सेवा के लिए सोचता, अनुभव करता तथा चाहता है, तो वह धीरे-धीरे समस्त बन्धन से मुक्त होता जाता है। मनुष्य जितना ही अधिक भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगता है, वह उतना ही अधिक उसके लिए लालायित रहता है। दैवी सेवा की यह दिव्य प्रकृति है। भौतिक सेवा की तृप्ति हो जाती है, जबकि भगवान् की आध्यात्मिक सेवा की न तो तृप्ति होती है, न उसका कोई अन्त है। मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति के प्रति अपनी लालसा बढ़ाता जा सकता है, लेकिन उसे उसकी तृप्ति या उसका अन्त नहीं दिखता। भगवान् की उत्कट सेवा से मनुष्य को भगवान् की दिव्य उपस्थिति की अनुभूति हो सकती है। अतएव भगवान् का दर्शन करने का अर्थ है उनकी सेवा में लगे रहना, क्योंकि उनकी सेवा तथा स्वयं भगवान् अभिन्न हैं। निष्ठावान भक्त को भगवान् की नैष्ठिक सेवा करते रहना चाहिए। भगवान् उचित दिशा-निर्देश करेंगे कि कहाँ तथा कैसे भगवत्-सेवा की जाय। नारद में कोई भौतिक इच्छा न थी, लेकिन भगवान् के प्रति उत्कट इच्छा को बढ़ाने के लिए ही भगवान् ने ऐसी सलाह दी।
 
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