सत्सेवयादीर्घयापि जाता मयि दृढा मति: ।
हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
सत्-सेवया—परम सत्य की सेवा द्वारा; अदीर्घया—कुछ दिनों तक; अपि—भी; जाता—प्राप्त हुआ; मयि—मुझको; दृढा—दृढ़; मति:—बुद्धि; हित्वा—त्याग कर; अवद्यम्—शोचनीय; इमम्—इस; लोकम्—भौतिक जगत को; गन्ता— जाते हुए; मत्-जनताम्—मेरे पार्षद; असि—होते हैं ।.
अनुवाद
कुछ काल तक ही सही, परम सत्य की सेवा करने से भक्त मुझमें दृढ़ एवं अटल बुद्धि प्राप्त करता है। फलस्वरूप, वह इस शोचनीय भौतिक जगत को त्यागने के बाद दिव्य जगत में मेरा पार्षद बनता है।
तात्पर्य
परम सत्य की सेवा करने का अर्थ है, प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में परम भगवान् की सेवा करना, जो भगवान् तथा नवदीक्षित भक्त के बीच एक पारदर्शी मध्यस्थ का काम करते हैं। नवदीक्षित भक्त में अपनी वर्तमान अपूर्ण भौतिक इन्द्रियों के बल पर भगवान् के परम व्यक्तित्व तक पहुँचने की शक्ति नहीं होती, अतएव आध्यात्मिक गुरु के निर्देशन में उसे भगवान् की दिव्य सेवा का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस तरह के प्रशिक्षण से, भले ही वह कुछ दिनों का ही क्यों न हो, नवदीक्षित भक्त को ऐसी दिव्य सेवा की बुद्धि प्राप्त हो जाती है जिससे वह अन्तत: भौतिक लोक में निरन्तर वास करने से मुक्त हो जाता है और आध्यात्मिक विश्व तक उन्नत होकर भगवान् का मुक्त पार्षद बनता है।
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