मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥ २४ ॥
शब्दार्थ
मति:—बुद्धि; मयि—मुझमें अनुरक्त; निबद्धा—लगा हुआ; इयम्—यह; न—कभी नहीं; विपद्येत—विलग; कर्हिचित्—किसी समय; प्रजा—जीव; सर्ग—सृष्टि के समय; निरोधे—संहार के समय; अपि—भी; स्मृति:—स्मृति, स्मरण-शक्ति; च—तथा; मत्—मेरी; अनुग्रहात्—कृपा से ।.
अनुवाद
मेरी भक्ति में लगी हुई बुद्धि कभी भी विच्छिन्न नहीं होती। यहाँ तक कि सृष्टि काल के साथ ही साथ संहार के समय भी मेरे अनुग्रह से तुम्हारी स्मृति बनी रहेगी।
तात्पर्य
भगवान् के प्रति की गई भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती। चूँकि भगवान् शाश्वत हैं, अतएव उनकी सेवा में लगाई गई बुद्धि या उनके प्रति किया गया कोई भी कार्य स्थायी होता है। भगवद्गीता में कहा गया है कि भगवान् के प्रति की गई ऐसी दिव्य सेवा जन्म-जन्मान्तर तक संचित होती जाती है और जब भक्त पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाता है, तो उसकी सारी सेवा को समाकलित कर देने पर वह भगवान् के सान्निध्य में जाने के योग्य हो जाता है। भगवान् की ऐसी संचित सेवा कभी विनष्ट नहीं होती, अपितु पूर्णत: परिपक्व होने तक बढ़ती ही जाती है।
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