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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  1.6.27 
एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन्नासक्तस्यामलात्मन: ।
काल: प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; कृष्ण-मते:—जो कृष्ण के चिन्तन में लीन हो; ब्रह्मन्—हे व्यासदेव; —नहीं; आसक्तस्य—आसक्त होने वाले का; अमल-आत्मन:—समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त का; काल:—मृत्यु; प्रादुरभूत्—दृष्टिगोचर हुआ; काले—समय आने पर; तडित्—बिजली; सौदामनी—प्रकाश करती हुई; यथा—जिस प्रकार है ।.
 
अनुवाद
 
 और हे ब्राह्मण व्यासदेव, इस तरह मैंने कृष्ण के चिन्तन में पूर्णतया निमग्न रहते हुए तथा किसी प्रकार की आसक्ति न रहने से समस्त भौतिक कलुष से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाने पर यथा समय मृत्यु पाई, जिस प्रकार बिजली गिरना तथा प्रकाश कौंधना एकसाथ होते हैं।
 
तात्पर्य
 कृष्ण के विचारों में पूर्ण रूप से निमग्न होने का अर्थ है, भौतिक कल्मष या लालसाओं से छुटकारा। जिस प्रकार किसी धनी व्यक्ति को छोटी-छोटी चीजों की परवाह नहीं रहती, उसी प्रकार से भगवान् कृष्ण का भक्त भी शाश्वत जीवन, ज्ञान तथा आनन्द से युक्त भगवान् के धाम जाने के प्रति आश्वस्त तथा प्रफुल्लित रहने के कारण छोटी-छोटी बातों की लालसा नहीं करता, क्योंकि ये सब वास्तविकता की पुत्तलिकाएँ या छाया मात्र होती हैं और उनका कोई स्थायी महत्त्व नहीं होता। आध्यात्मिक दृष्टि से सुसम्पन्न व्यक्तियों का यही लक्षण होता है और समय के साथ जब शुद्ध भक्त पूर्ण रूप से सन्नद्ध रहता है, तो एकाएक शरीर का परिवर्तन होता है जिसे सामान्य रूप से मृत्यु कहा जाता है। शुद्ध भक्त के लिए ऐसा परिवर्तन बिजली के समान होता है और उसकी चमक उसके साथ ही उसके पीछे दिखती है। कहने का अर्थ यह है कि परम की इच्छा से भक्त का भौतिक शरीर उसी समय बदलता है और उसके आध्यात्मिक शरीर का विकास हो जाता है। यहाँ तक कि मृत्यु के पूर्व भी शुद्ध भक्त को कोई भौतिक आसक्ति नहीं होती, क्योंकि उसका शरीर उसी प्रकार आध्यात्मिक बन जाता है, जिस प्रकार अग्नि के सम्पर्क में रहने से लोहा लाल (अग्निवत्) हो जाता है।
 
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