प्रयुज्यमाने—पुरस्कृत होकर; मयि—मुझ पर; ताम्—उस; शुद्धाम्—दिव्य; भागवतीम्—भगवान् की संगति करने योग्य; तनुम्—शरीर; आरब्ध—प्राप्त किया; कर्म—सकाम कर्म; निर्वाण:—समाप्त होना; न्यपतत्—त्याग दिया; पाञ्च- भौतिक:—पाँच तत्त्वों से बना शरीर ।.
अनुवाद
भगवान् के पार्षद के लिए उपयुक्त दिव्य शरीर पाकर मैंने पाँच भौतिक तत्त्वों से बने शरीर को त्याग दिया और इस तरह कर्म के सारे अर्जित फल समाप्त हो गये।
तात्पर्य
भगवान् ने यह बता दिया था कि नारद को भगवान की संगति करने के लिए उपयुक्त दिव्य शरीर प्रदान किया जायेगा, अत: नारद ने ज्योंही भौतिक शरीर त्यागा, उन्हें आध्यात्मिक शरीर प्राप्त हो गया। यह दिव्य शरीर भौतिक आसक्ति से मुक्त और तीन प्रधान दिव्य गुणों से युक्त होता है। ये हैं शाश्वतता, भौतिक गुणों से मुक्ति तथा सकाम कर्मों के फल से मुक्ति। भौतिक शरीर इन तीनों गुणों के अभाव से निरन्तर पीडि़त रहता है। किन्तु, ज्योंही कोई भक्त भगवान् की सेवा में तत्पर होता है, त्योंही उसका शरीर दिव्य गुणों से अभिभूत हो जाता है। यह लोहे पर पारसमणि की तरह चुम्बकीय प्रभाव डालता है। दिव्य भक्तिमय सेवा का प्रभाव भी उसी तरह होता है। फलत: शरीर-परिर्वतन का अर्थ है, शुद्ध भक्त पर भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों की प्रतिक्रिया की समाप्ति। शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। ध्रुव महाराज, प्रह्लाद महाराज तथा अन्य अनेक भक्त इसी शरीर से भगवान् का साक्षात्कार कर सके। इसका अर्थ यह हुआ कि भक्त के शरीर का गुण भौतिक से दिव्य में बदल जाता है। प्रामाणिक शास्त्रों के आधार पर, प्रधिकृत गोस्वामियों का यही अभिमत है। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि इन्द्रगोप कीट से लेकर स्वर्ग के महान् राजा इन्द्र तक, सारे जीव कर्म के नियम के अधीन हैं और उन्हें अपने- अपने कर्मों के फल को भोगना पड़ता है। केवल भक्त ही सर्वोपरि सत्ता, पुरूषोत्तम भगवान् की अहैतुकी कृपा से इन कर्म बन्धनों से मुक्त हैं।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.