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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 6: नारद तथा व्यासदेव का संवाद  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  1.6.30 
सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षत: ।
मरीचिमिश्रा ऋषय: प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
सहस्र—एक हजार; युग—४३,००,००० वर्ष; पर्यन्ते—अवधि के अन्त में; उत्थाय—बीतने पर; इदम्—इस; सिसृक्षत:—पुन: सृजन करने की इच्छा प्रकट की; मरीचि-मिश्रा:—मरीचि जैसे ऋषि; ऋषय:—सारे ऋषिगण; प्राणेभ्य:—उनकी इन्द्रियों से; अहम्—मैं; —भी; जज्ञिरे—प्रकट हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 ४,३२,००,००,००० सौर वर्षों के बाद, जब भगवान् की इच्छा से ब्रह्मा पुन: सृष्टि करने के लिए जागे, तो मरीचि, अंगिरा, अत्रि इत्यादि सारे ऋषि भगवान् के दिव्य शरीर से उत्पन्न हुए और उन्हीं के साथ-साथ मैं भी प्रकट हुआ।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मा के जीवन के एक दिन की अवधि ४,३२,००,००,००० सौर वर्षों की होती है। इसका उल्लेख भगवद्गीता में किया गया है। अत: ब्रह्माजी इस अवधि में अपने जनक गर्भोदकशायी विष्णु के शरीर के भीतर योगनिद्रा में शयन करते हैं। इस निद्रा के बाद, जब भगवान् की इच्छा से ब्रह्मा के माध्यम द्वारा पुन: सृष्टि की जाती है, तो सारे ऋषि पुन: दिव्य शरीर के विभिन्न अंगों से प्रकट होते हैं और नारद भी इसी तरह प्रकट होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि नारद उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं, जिस प्रकार मनुष्य निद्रा के बाद उसी शरीर में जगता है। श्री नारद सर्वशक्तिमान की दिव्य तथा भौतिक सृष्टियों के सभी भागों में जाने के लिए मुक्त हैं। वे अपने दिव्य शरीर में ही प्रकट तथा अंतर्धान होते रहते हैं। यह शरीर बद्धजीवों के शरीर से भिन्न है, क्योंकि इस शरीर तथा आत्मा में कोई भेद नहीं होता।
 
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