तब से सर्वशक्तिमान विष्णु की कृपा से मैं दिव्य जगत में तथा भौतिक जगत के तीनों प्रखण्डों में बिना रोक-टोक के सर्वत्र विचरण करता हूँ। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं भगवान् की अविच्छिन्न भक्तिमय सेवा में स्थिर हूँ।
तात्पर्य
जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, भौतिक प्रक्षेत्र (ब्रह्माण्ड) के तीन प्रखण्ड हैं। ये हैं ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक तथा अधोलोक। ऊर्ध्वलोकों के परे अर्थात् ब्रह्मलोक के ऊपर ब्रह्माण्ड के भौतिक आवरण होते हैं और इसके भी ऊपर चिन्मय आकाश होता है, जिसका विस्तार असीम है और जिसमें अपने शाश्वत मुक्त पार्षदों सहित भगवान् द्वारा निवसित असंख्य स्वत:प्रकाशित वैकुण्ठ लोक होते हैं। श्री नारद मुनि इन सभी लोकों में, भौतिक एवं दिव्य प्रक्षेत्रों में, बिना रोक-टोक प्रवेश कर सकते हैं जिस तरह भगवान् अपनी सृष्टि के किसी भी भाग में स्वत: जाने के लिए स्वतन्त्र हैं। भौतिक जगत में सारे जीव भौतिक प्रकृति के तीन गुणों— सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुणों—से प्रभावित रहते हैं। लेकिन श्री नारद मुनि इन सारे भौतिक गुणों से परे हैं, अतएव वे कहीं भी अबाध रूप से विचरण कर सकते हैं। वे मुक्त अन्तरिक्ष यात्री हैं। भगवान् विष्णु की अहैतुकी कृपा अद्वितीय होती है और ऐसी कृपा केवल भगवान् के अनुग्रहवश भक्तों द्वारा अनुभव की जाती है। अतएव भक्त कभी भी च्युत नहीं होते, लेकिन भौतिकतावादी अर्थात् सकाम कर्मी तथा ज्ञानी अपने-अपने गुणों से बाध्य होकर च्युत होते हैं। जैसाकि कहा जा चुका है, ऋषिगण नारद की तरह आध्यात्मिक जगत (वैकुण्ठ) में प्रवेश नहीं कर सकते। इस तथ्य का उद्घाटन नरसिंह पुराण में किया गया है। मरीचि जैसे ऋषि सकाम कर्म के पंडित हैं, तथा सनक एवं सनातन जैसे ऋषि दार्शनिक चिन्तन (ज्ञान) के प्रमाण हैं। किन्तु श्री नारद मुनि ही भगवान् की दिव्य भक्ति के मूल अधिकारी हैं। भगवान् की भक्ति के सारे बड़े-बड़े अधिकारी नारद-भक्ति-सूत्र के अनुसार नारद मुनि के चरण चिह्नों का अनुसरण करते हैं, अतएव भगवान् के सारे भक्त भगवान् के राज्य, वैकुण्ठ में बिना किसी हिचक के प्रवेश करने के पात्र होते हैं।
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